Write a poem lamenting on the natural disasters and man role in it
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प्राकृतिक आपदा का सच
उठा तूफान दिल के घरौंदे को उड़ा ले गया।
तेज तूफान दोहरे होते वृक्ष उखड़े नहीं।
सूखता जिस्म धरती की दरा रेंहत चेतन।
झुलसी दूब पानी को निहारते सूखे नयन।
ठूंठ से वृक्ष झरते हैं परिंदे पत्तों के जैसे।
गिद्ध की आंखें जमीन पर बिछीं वीभत्स लाशें।
शांत जीवन के विस्मय में प्रवेश करता था वह
मनुष्य के भौतिक विकास सब को नष्ट कर देता है |
दृश्य में अब रेडियो से आती आवाज़ बन गई |
मनुष्य ने अपने लाभ के लिए प्रकृति को दूषित कर दिया है |
प्रकृति के संतुलन से साथ खिलवाड़ कर रहा है | पेड़ो को काट रहा है , प्रदूषण को बढ़ावा दे रहा है | हर तरफ़ कूड़ा-कर्कट डाल रहा है |
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