Write a short story about 'रोमाचक एवरेस्ट अशभयान' [Class 9]
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रोमांचक एवरेस्ट अभियान पर एक कहानी
8 दिसंबर को, मेरे जन्मदिन पर, मैंने गुलमर्ग में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ स्कीइंग एंड माउंटेनियरिंग (IISM) की प्रिंसिपल की नौकरी छोड़ दी और मैं दिल्ली मैं अपने अभियान की तैयारियों को पूरा करने के लिए जुट गया। हमारे पास केवल तीन महीने का समय था जो मुझे पता था कि इस तरह के बड़े अभियान के प्रबंध की तैयारी के लिये काफी कम समय था। दूसरी ओर मुझे लगा कि अगले साल इस अभियान को बंद किया जाना है ऐसे में पूरी परियोजना खटाई में पड़ सकती है और मैंने इस मौके के लिये लंबा इंतजार किया था। वसंत के दौरान अर्थात मानसून से पहने हमारे अभियान को आगे बढ़ाने के मेरे निर्णय से हमारी तैयारी का समय और कम हो गया। आवश्यक तैयारी के मद्देनजर, कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि हमें मानसून के बाद की अवधि यानि सितंबर में जाना चाहिये, लेकिन क्षेत्र के मौसम संबंधी आंकड़ों का अध्ययन करने के बाद मुझे लगा कि इसमें सफलता की उम्मीद कम है।
कुछ लोग सोचते हैं कि एक प्रमुख हिमालयी अभियान के आयोजन के लिए लाखों रुपये खर्च होते हैं। एवरेस्ट पर अमेरिकी अभियान की लागत तीन मिलियन रुपये थी और 1975 के ब्रिटिश एवरेस्ट अभियान का बजट लगभग दो मिलियन रुपये था, जो उस समय पैसे की भारी हानि जैसा था। यद्यपि सेना हमारी अधिकांश आवश्यकताओं को पूरा कर रही थी, जैसे कि भोजन, बुनियादी उपकरण, परिवहन, आदि, फिर भी हमें कुछ आवश्यक उपकरण खरीदने के साथ-साथ अन्य नकदी खर्चों को पूरा करने के लिए कम से कम आधा मिलियन रुपये यानि लगभग पांच लाख रुपये की आवश्यकता थी। हम इस पैसे को जुटाने के लिये कुछ सीधे-सरल उपायों द्वारा आगे बढ़े। सबसे पहले हमने सेना के दक्षिणी कमान से एक फिल्म प्रीमियर आयोजित करने का अनुरोध किया, जिससे हमें एक लाख रुपयों का लाभ हुआ। पूर्वी कमान ने घोड़े के टट्टू का आयोजन किया तथा हमें और एक लाख रुपये का एकमुश्त अनुदान दिया। दिल्ली में जारी किए गए एक विवरणिका के द्वारा हम एक लाख और जुटाने में कामयाब रहे। इसके बाद भी दो लाख रुपये कम पड़े गये जिसे हमने अभियान पूरा होने के बाद लेख और किताबें लिखकर पूरा करने की योजना बनाई।
इन सभी प्रयासों के बावजूद, हमारा बजट शायद ही उस बड़े अभियान के लिए पर्याप्त था जैसे कि हमने योजना बनाई थी, इसलिए हमने एक बड़ा सौदा करने का निश्चय किया। पर्वतारोहण उपकरण इतने महंगे थे कि उच्च-ऊँचाई वाले सिर्फ 60 पर्वतारोहियों को किट देने के लिए हमें टेंट, रस्सियों आदि जैसे अन्य भारी उपकरणों पर बिना विचार किये चार लाख रुपये खर्च करने पड़ते। ये बात हमें गहरे संकट में डाल सकती थी। इसलिए मैंने फैसला किया कि हम 20,000 फीट की ऊँचाई तक के लिये स्वदेशी उच्च-ऊंचाई वाले सेना के उपकरणों का उपयोग करेंगे, और परिष्कृत आयातित उपकरणों का उपयोग यथासंभव कम से कम करेंगे।
अगला प्रमुख सिरदर्द ऑक्सीजन था। तब तक कोई भी बिना ऑक्सीजन के 28,000 फीट या उससे अधिक के पहाड़ पर चढ़ने में सफल नहीं हुआ था, और हम अपवाद बनने की योजना नहीं बना रहे थे। मैंने लगभग 150 बोतलों की हमारी जरूरत का अनुमान किया, जिनमें से प्रत्येक की लागत 500 रुपये थी। इस खर्च को हम शायद ही उठा पाएं। मैंने यह पता लगाने के लिए पूछताछ की कि क्या कोई खाली बोतल भारत में उपलब्ध है। हमारे एमओ मेजर एस. सेन जो आर्मी मेडिकल स्टोर्स से दवाइयाँ एकत्रित करते रहे थे, ने एक दिन मेरा उल्लेख किया कि उन्होंने विभिन्न आकारों की सैकड़ों ऑक्सीजन की बोतलें पड़ी देखी थीं। पहले तो मुझे लगा कि ये उन लोगों के लिए भारी होंगी जो हमारे अनुरूप नहीं होंगी। लेकिन मैं एक हताश स्थिति में था और फिर भी मैंने उन्हें एक बार देखने का फैसला किया। हम लगभग 12 मील दूर दुकानों में गए और हमें वहाँ विभिन्न आकारों की खाली ऑक्सीजन की बोतलों का एक बड़ा ढेर मिला जो लगभग उसी तरह की 150 ऑक्सीजन टाइप की बोतले थीं जिन्हें हम ढूंढ रहे थे। ये फ्रांस में बनाईं गईं थीं और एवरेस्ट पर इस्तेमाल की गईं थीं। हमने सुरजीत को कलकत्ता भेजा ताकि उन्हें इंडियन ऑक्सीजन लिमिटेड द्वारा रिफिल किया जा सके। लेकिन मैं अभी भी चिंतित था कि ये कैसा प्रदर्शन करेंगी। दार्जिलिंग में एचएमआई के प्रिंसिपल जीपी कैप्टन ए.जे.एस. ग्रेवाल ने मुझे बताया था कि उन्होंने बोतलों को रीफिल करने की कोशिश की थी, लेकिन उनका दबाव कुछ महीनों के भीतर कम हो गया था। यह एक गंभीर समस्या थी और हमारी अंतिम चढ़ाई की योजनाओं पर संकट आ सकता था।
हमारी फोटोग्राफी आवश्यकताओं ने भी हमें बहुत सिरदर्द दिया। कैमरे बेहद महंगे थे और आसानी से उपलब्ध नहीं थे। बड़ी मुश्किल से मैं एक असाही पेंटाक्स की व्यवस्था कर पाया, जो सभी अटैचमेंट और एक्सेसरीज़ से युक्त था। हमारे पास केवल एक और अच्छा कैमरा था जो मेरा व्यक्तिगत निकोर्मैट था। हमने दो छोटे इलेक्ट्रॉनिक यशिस भी लिए। फिर हम फिल्मों की समस्या से दो-चार हुये। हमने लंदन में किसी से हमें रंगीन फिल्में भेजने का अनुरोध किया था, लेकिन कुछ गलतफहमी के कारण कोडाक्रोम के बजाय उन्होंने कोडैकलर को भेजा जो प्रिंट के लिए थी, लेकिन हमें पारदर्शी चाहिए थी। काफी प्रयास के बाद मैं 20 एकटैक्रोम फिल्मों को खरीदने में सफल रहा जिसने कुछ हद तक स्थिति को संभाल लिया। इस प्रकांर, हम पास में 20 एकटाक्रोम, 50 कोडाकलर और 20 काले और सफेद रोल थे। किसी भी अन्य अभियान की तुलना में यह चिल्लर की तरह थे। लेकिन जैसे भी ये थे पर हमारी फोटो कवरेज बिल्कुल भी खराब नहीं थी।
हमारी सारी तैयारी अब लगभग पूरी हो चुकी थी। हमें केवल दिल्ली से सिलीगुड़ी के लिए सामान ले जाना था, और फिर लाचेन के लिए परिवहन की व्यवस्था करना था। यह काफी आसान था। खैर, सारी तैयारियों ने हमें काफी नाच नचाया, ये बहुत व्यस्त तीन महीने थे। यह भारत और विदेशों में हमारे दोस्तों की उदार मदद और भारतीय सेना के मजबूत और भरोसेमंद समर्थन के बिना संभव नहीं होता। ।