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कौआ चला हँस की चाल
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एक कहानी कौवा चला हंस की चाल पर
कौवा चला हंस की चाल और अपनी ही चाल भूल गया
कुछ ऐसा ही होता है जब हम वह करने की कोशिश करते हैं जो कि हम नहीं होते हैं कुछ ऐसा ही दिखाया गया नाटक कौवा चला हंस की हाल में रविवार की शाम हदी भवन में दिल्ली का थिएटर ग्रुप नट सम्राट के कलाकारों ने निर्देशक श्याम कुमार के निर्देशन में हास्य नाटक का सुंदर मंचन किया। लेखक मॉल यार के द्वारा लिखे गए इस नाटक में दिखाया गया की राजा जमरूद सह कौन बनेगा अरबपति नामक एक प्रतियोगिता जीत जाता है प्रतियोगिता जीतने से पहले वह बहुत गरीब होता है लेकिन जीतने के बाद उसके ठाट ही बदल जाते हैं और वह हर उस चीज को करने की कोशिश करता है जो कि अमीर लोग करते हैं मसलन वह अपने घर में जिम ट्रेनर रखता है कुत्ता पालता है और भी बहुत कुछ करता है इसी बीच मुसद्दी नाम का एक आदमी उसे बेवकूफ बनाकर कि वह उसे चुनाव लड़वाऐगा या कहकर उससे पैसे। हड़पता गया जब जमरूद सा गरीब हो गया तो वह अपनी बेटी की शादी मेहर नामक मैकेनिक से तय कर देता है लेकिन जब वह अमीर बन जाता है तो वह अपनी बेटी का रिश्ता मैहर से इसलिए तोड़ देता है क्योंकि वह गरीब होता है जमरोसा को सबक सिखाने के लिए सभी लोग एक खेल रखते हैं और बाद में वह अपने किए पर पछतावा है और सब से माफ़ी मांगता है
Answer:
- please mark as brainliest
- follow me
Explanation:
कौआ चला हंस की चाल
कौआ चला हंस की चाल और अपनी चाल भी भूल गया। यह उक्ति हम सबने पढ़ी होगी और शायद इसे समझने का यत्न भी किया होगा। इसका अर्थ स्पष्ट है कि हंस की नकल करने के चक्कर में कौवा अपनी पहचान खोने लगा।
उसी प्रकार हम मनुष्य भी उस हंस रूपी परमपिता परमात्मा में एकाकार होने के सपने को संजोये न ईश्वरमय हो पाए हैं और न ही एक अच्छा इंसान बन सके हैं। स्वयं को ईश्वर बताने वाले उन तथाकथित धर्मगुरुओं के संबंध में तो चर्चा करना ही व्यर्थ है। उनमें से कुछ का हश्र तो हम सबने ही देखा है। उनके अतिरिक्त जिनके विषय में हमें जानकारी नहीं है वे भी कमोबेश वैसे ही हैं। वे सभी प्रायः धर्म के नाम पर ढोंग ही करते हैं। उनकी कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर होता है। इसीलिए उनके कथन का समाज पर प्रभाव नहीं पड़ता। जो लोग उनके साथ संबंध बनाते हैं वे उनके ज्ञान व गुणों से प्रभावित होकर नहीं अपितु केवल स्वार्थ के कारण ही जुड़ते हैं।
स्वयं को महारथी कहने वाले उन अखाड़ों की चर्चा तो कुम्भ स्नान के समय ही उजागर हो जाती है जब उनमें अपने अखाड़े को सर्वश्रेष्ठ कहलवाने के प्रयास में अच्छा खासा वाद-विवाद होता है और लट्ठ तक चलते हैं।
ऐसे स्वयंभू कहलवाने वालों से हम सांसारिक लोग अधिक श्रेष्ठ हैं। हम कम-से-कम ईश्वर का प्रतिनिधि होने का दावा तो नहीं करते और न दूसरों को अपरिग्रह का उपदेश देते हुए दान के नाम पर पैसा इकट्ठा करके अपने लिए गाड़ियों, धन-दौलत अथवा जमीन-जयदाद के अंबार लगाते हैं। न ही अपना विरोध करने वालों को यातनाएँ देते हैं या उन्हें मौत के घाट उतार देते हैं। ये सब मैं नहीं कह रही बल्कि समाचार-पत्रों, टीवी चैनलों और सोशल मीडिया की सुर्खियों में बहुत बार हम देख व पढ़ चुके हैं।