Wriye an essay on
करत करत अभ्यास जड़मति होत सुजान
plz do it fast
its urgent
Answers
Answered by
2
Answer:
See in it I think it will help you
Attachments:
Answered by
2
करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान
कविवर वृंद के रचे दोहे की एक पंक्ति वास्तव में निरंतर परिश्रम का महत्व बताने वाली है। साथ ही निरंतर परिश्रम करने वाला व्यक्ति के लिए अनिवार्य सफलता प्रदान करने वाली है दोहे की यह पंक्ति। पूरा दोहा इस प्रकार है :-
‘करत -करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत-जात ते, सिल पर परत निसान।’
इसकी व्याख्या इस प्रकार है कि निरंतर परिश्रम करते रहने से असाध्य माना जाने वाला कार्य भी सिद्ध हो जाया करता है। असफलता के माथे में कील ठोककर सफलता पाई जा सकती है। जैसे कूंए की जगत पर लगी सिल (शिला) पानी खाींचने वाली रस्सी के बार-बार आने-जाने से, कोमल रस्सी की रगड़ पडऩे से घिसकर उस पर निशान अंकित हो जाया करता है। उसी तरह निरंतर और बार-बार अभ्यास यानि परिश्रम और चेष्टा करते रहने से एक निठल्ला और जड़-बुद्धि समझा जाने वाला व्यक्ति भी कुछ करने योज्य बन सकता है। सफलता और सिद्धि का स्पर्श कर सकता है। हमारे विचार में कवि ने अपने जीवन के अनुभवों के सार-तत्व के रूप में ही इस तरह की बात कही है। हमारा अपना भी विश्वास है कि कथित भाव ओर विचार सर्वथा अनुभव-सिद्ध ही है।
ऐसे किंदवतीं अवश्य प्रचलित है कि कविवर कालिदास कवित्व-शक्ति प्राप्त करने से पहले निपट जड़मति वाले ही थे। कहा जाता है कि वन में एक वृक्ष की जिस डाली पर बैठे थे, इस बात की चिंता किए बिना कि कट कर गिरने पर उन्हें चोट आ सकती या मृत्यु भी हो सकती है। उसी डाली को काट रहे थे। विद्योतमा नामक विदुषी राजकन्या का मान भंग करने का षडय़ंत्र कर रहे तथाकथित विद्वान वर्ग को वह व्यक्ति (कालिदास) सर्वाधिक जड़मति और मूख लगा। सो वे उसे ही कुछ लाभ-लालच दें, कुछ ऊटपटांक सिखा-पढ़ा, महापंडित के वेश में सजा-धजाकर राजदरबार में विदुषी राजकन्या विद्योत्मा से शास्त्रार्थ करने के लिए ले गए। उस मूर्ख के ऊटपटांग मौन संकेतों की मनमानी व्याख्या षडय़ंत्रकारियों ने एक विदुषी से विवाह करा दिया। लेकिन प्रथम रात्रि को वास्तविकता प्रकट हो जाने पर पत्नी के ताने से घायल होकर ज्यों घर से निकले कठिन परिश्रम और निरंतर साधना रूपी रस्सी के आने-जाने से घिस-घिसकर महाकवि कालिदास बनकर घर लौटे। स्पष्ट है कि निरंतर अभ्यास ने तपाकर उनकी जड़मति को पिघलाकर बहा दिया। जो बाकी बचा था, वह खरा सोना था।
विश्व के इतिहास में और भी इसी प्रकार के कई उदाहरण खोजे एंव दिए जा सकते हैं। हमें अपने आस-पास के प्राय: सभी जीवन-क्षेत्रों में इस प्रकार के लोग मिल जाते हैं कि जो देखने-सुनने में निपट अनाड़ी और मूर्ख प्रतीत होते हैं। वे अक्सर इधर-उधर मारे-मारे भटकते भी रहते हैं। फिर भी हार न मान अपनी वह सुनियोजित भटकन अनवरत जारी रखा करते हैं। तब एक दिन ऐसा भी आ जाता है कि जब अपने अनवरत अध्यवसाय से निखरा उनका रंग-रूप देखकर प्राय दंग रह जाना पड़ता है। इससे साफ प्रकट है कि विश्व में जो आगे बढ़ते हैं किसी क्षेत्र में प्रगति और विकास किया करते हैं, वे किसी अन्य लोक के प्राणी न होकर इस हमारी धरती के हमारे ही आस-पास के लोग हुआ करते हैं। बस, अंतर यह होता है कि वे एक-दो बार की हार या असफलता से निराश एंवा चुप होकर नहीं बैठ जाया करते। बल्कि निरंतर, उन हारों-असफलताओं से टकराते हैं और एक दिन उनकी चूर-चूर कर विजय या असफलता के सिंहासन पर आरूढ़ दिखाई देकर सभी काो चकित-विस्मित कर दिया करते हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट कर देते हैं, अपने व्यवहार और असफलता से कि वास्तव में संकल्पवान व्यक्ति के शब्दकोश से असंभव नाम का कोई शब्द नहीं हुआ करता।
इसलिए मनुष्य को कभी भी-किसी भी स्थिति में हार मानकर, निराश होकर नहीं बैठ जाना चाहिए। अपने अध्यवसाय-रूपी रस्सी को समय की शिला पर निरंतर रगड़ते रहना चाहिए। तब तक निरंतर ऐसे करते रहना चाहिए कि जब तक कर्म की रस्सी की विघ्न-बाधा या असफलता की शिला पर घिसकर उनकी सफलता का चिन्ह स्पष्ट न झलकने लगे। मानव, प्रगति का इतिहास गवाह है कि आज तक जाने कितनी शिलाओं को अपने निरंतर अभ्यास से घिसते आकर, बर्फ की कितनी दीवारें पिघलाकर वह आज की उन्नत दशा में पहुंच पाया है। यदि वह हार मानकर या एक-दो बार की असफलता से ही घबराकर निराश बैठे रहता, तो अभी तक आदिमकाल की अंधेरी गुफाओं और बीहड़ वनों में ही भटक रहा होता। लेकिन यह न तब संभव था और प्राप्त स्थिति पर ही संतुष्ट होकर बैठे रहना न आज ही मानव के लिए संभव है।
Please mark me the brainliest
कविवर वृंद के रचे दोहे की एक पंक्ति वास्तव में निरंतर परिश्रम का महत्व बताने वाली है। साथ ही निरंतर परिश्रम करने वाला व्यक्ति के लिए अनिवार्य सफलता प्रदान करने वाली है दोहे की यह पंक्ति। पूरा दोहा इस प्रकार है :-
‘करत -करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत-जात ते, सिल पर परत निसान।’
इसकी व्याख्या इस प्रकार है कि निरंतर परिश्रम करते रहने से असाध्य माना जाने वाला कार्य भी सिद्ध हो जाया करता है। असफलता के माथे में कील ठोककर सफलता पाई जा सकती है। जैसे कूंए की जगत पर लगी सिल (शिला) पानी खाींचने वाली रस्सी के बार-बार आने-जाने से, कोमल रस्सी की रगड़ पडऩे से घिसकर उस पर निशान अंकित हो जाया करता है। उसी तरह निरंतर और बार-बार अभ्यास यानि परिश्रम और चेष्टा करते रहने से एक निठल्ला और जड़-बुद्धि समझा जाने वाला व्यक्ति भी कुछ करने योज्य बन सकता है। सफलता और सिद्धि का स्पर्श कर सकता है। हमारे विचार में कवि ने अपने जीवन के अनुभवों के सार-तत्व के रूप में ही इस तरह की बात कही है। हमारा अपना भी विश्वास है कि कथित भाव ओर विचार सर्वथा अनुभव-सिद्ध ही है।
ऐसे किंदवतीं अवश्य प्रचलित है कि कविवर कालिदास कवित्व-शक्ति प्राप्त करने से पहले निपट जड़मति वाले ही थे। कहा जाता है कि वन में एक वृक्ष की जिस डाली पर बैठे थे, इस बात की चिंता किए बिना कि कट कर गिरने पर उन्हें चोट आ सकती या मृत्यु भी हो सकती है। उसी डाली को काट रहे थे। विद्योतमा नामक विदुषी राजकन्या का मान भंग करने का षडय़ंत्र कर रहे तथाकथित विद्वान वर्ग को वह व्यक्ति (कालिदास) सर्वाधिक जड़मति और मूख लगा। सो वे उसे ही कुछ लाभ-लालच दें, कुछ ऊटपटांक सिखा-पढ़ा, महापंडित के वेश में सजा-धजाकर राजदरबार में विदुषी राजकन्या विद्योत्मा से शास्त्रार्थ करने के लिए ले गए। उस मूर्ख के ऊटपटांग मौन संकेतों की मनमानी व्याख्या षडय़ंत्रकारियों ने एक विदुषी से विवाह करा दिया। लेकिन प्रथम रात्रि को वास्तविकता प्रकट हो जाने पर पत्नी के ताने से घायल होकर ज्यों घर से निकले कठिन परिश्रम और निरंतर साधना रूपी रस्सी के आने-जाने से घिस-घिसकर महाकवि कालिदास बनकर घर लौटे। स्पष्ट है कि निरंतर अभ्यास ने तपाकर उनकी जड़मति को पिघलाकर बहा दिया। जो बाकी बचा था, वह खरा सोना था।
विश्व के इतिहास में और भी इसी प्रकार के कई उदाहरण खोजे एंव दिए जा सकते हैं। हमें अपने आस-पास के प्राय: सभी जीवन-क्षेत्रों में इस प्रकार के लोग मिल जाते हैं कि जो देखने-सुनने में निपट अनाड़ी और मूर्ख प्रतीत होते हैं। वे अक्सर इधर-उधर मारे-मारे भटकते भी रहते हैं। फिर भी हार न मान अपनी वह सुनियोजित भटकन अनवरत जारी रखा करते हैं। तब एक दिन ऐसा भी आ जाता है कि जब अपने अनवरत अध्यवसाय से निखरा उनका रंग-रूप देखकर प्राय दंग रह जाना पड़ता है। इससे साफ प्रकट है कि विश्व में जो आगे बढ़ते हैं किसी क्षेत्र में प्रगति और विकास किया करते हैं, वे किसी अन्य लोक के प्राणी न होकर इस हमारी धरती के हमारे ही आस-पास के लोग हुआ करते हैं। बस, अंतर यह होता है कि वे एक-दो बार की हार या असफलता से निराश एंवा चुप होकर नहीं बैठ जाया करते। बल्कि निरंतर, उन हारों-असफलताओं से टकराते हैं और एक दिन उनकी चूर-चूर कर विजय या असफलता के सिंहासन पर आरूढ़ दिखाई देकर सभी काो चकित-विस्मित कर दिया करते हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट कर देते हैं, अपने व्यवहार और असफलता से कि वास्तव में संकल्पवान व्यक्ति के शब्दकोश से असंभव नाम का कोई शब्द नहीं हुआ करता।
इसलिए मनुष्य को कभी भी-किसी भी स्थिति में हार मानकर, निराश होकर नहीं बैठ जाना चाहिए। अपने अध्यवसाय-रूपी रस्सी को समय की शिला पर निरंतर रगड़ते रहना चाहिए। तब तक निरंतर ऐसे करते रहना चाहिए कि जब तक कर्म की रस्सी की विघ्न-बाधा या असफलता की शिला पर घिसकर उनकी सफलता का चिन्ह स्पष्ट न झलकने लगे। मानव, प्रगति का इतिहास गवाह है कि आज तक जाने कितनी शिलाओं को अपने निरंतर अभ्यास से घिसते आकर, बर्फ की कितनी दीवारें पिघलाकर वह आज की उन्नत दशा में पहुंच पाया है। यदि वह हार मानकर या एक-दो बार की असफलता से ही घबराकर निराश बैठे रहता, तो अभी तक आदिमकाल की अंधेरी गुफाओं और बीहड़ वनों में ही भटक रहा होता। लेकिन यह न तब संभव था और प्राप्त स्थिति पर ही संतुष्ट होकर बैठे रहना न आज ही मानव के लिए संभव है।
Please mark me the brainliest
Similar questions