युधिष्ठर की चिंता का कारण क्या था ?
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युधिष्ठिर की चिंता
संजय कहते हैं- भरतश्रेष्ठ! प्रथम दिन के युद्ध में गंगानन्दन भीष्मका प्रचंड युद्ध तथा उनके बाणों से पीड़ित हुई पाण्डव सेना को देखकर धर्मराज युधिष्ठिर अपने सभी भाईयों और सम्पूर्ण राजाओं के साथ तुरन्त भगवान श्रीकृष्ण के पास गये और अत्यन्त शोक से संतप्त हो भीष्म के ऐसे पराक्रम तथा अपनी पराजय की चिंता करते हुए भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोले। ‘श्रीकृष्ण! देखिये, महान् धनुर्धर और भयंकर भीष्म अपने बाणों द्वारा मेरी सेना को उसी प्रकार दग्ध कर रहे हैं, जैसे ग्रीष्म ऋतु में लगी हुई आग घास-फूंस को जलाकर भस्म कर डालती है। जैसे अग्निदेव प्रज्जवलित होकर हविष्य की आहुति ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार ये महामना भीष्म अपनी बाणरूपी जिह्रा से मेरी सेना को चाटते जा रहे है। हमलोग कैसे इनकी और देख सकेंगे-किस प्रकार इसका सामना कर सकेंगे ? ‘हाथों मे धनुष लिये इन महाबली पुरुषसिंह भीष्म को देखकर और समरभूमि में इनके बाणों से आहत होकर मेरी सारी सेना भागने लगती है। ‘क्रोध में भरे हुए यमराज, वज्रधारी इन्द्र, पाशधारी वरुण अथवा गदाधारी कुबेर भी कदाचित् युद्ध में जीते जा सकते हैं परन्तु महातेजस्वी, महाबली भीष्म को जीतना अशक्य है। ‘केशव! ऐसी दशा में तो अपनी बुद्धि की दुर्बलता के कारण भीष्म से टक्कर लेकर भीष्मरूपी अगाध जलराशि में नाव के बिना डूबा जा रहा हूँ। ‘वार्ष्णेय! अब मैं वन को चला जाऊंगा। वही जीवन बिताना मेरे लिये कल्याणकारी होगा। इन भूपालों को व्यर्थ ही भीष्मरूपी मृत्यु का सौंप देने में कोई भलाई नही है। ‘श्रीकृष्ण! भीष्म महान् दिव्यास्त्रों के ज्ञाता है। वे मेरी सारी सेना का संहार कर डालेंगे। जैसे पतंगे मरने के लिये ही जलती आग में कूद पडते हैं, उसी प्रकार मेरे समस्त सैनिक अपने विनाश के लिये ही भीष्म के समीप जाते हैं। ‘वार्ष्णेय! राज्य के लिये पराक्रम करके मैं सब प्रकार से क्षीण होता जा रहा हूँ। मेरे वीर भ्राता बाणों से पीड़ित होकर अत्यन्त कृश होते जा रहे थे। ‘ये बन्धुजनोचित सौहार्द के कारण मेरे लिये राज्य और सुख से वंचित हो दुःख भोग रहे हैं। इस समय मैं इनके और अपने जीवन को ही बहुत अच्छा समझता हूँ क्योंकि अब जीवन भी दुर्लभ है। ‘केशव! जीवन बच जाने पर मैं दुष्कर तपस्या करूंगा परन्तु रणक्षेत्र में इन मित्रों की व्यर्थ हत्या नही कराऊॅगा।
‘महाबली भीष्म अपने दिव्य अस्त्रों द्वारा मेरे पक्ष के श्रेष्ठ एवं प्रहार कुशल कई सहस्र रथियों का निरन्तर संहार कर रहे है। ‘माधव! शीघ्र बताइये, क्या करने से मेरा हित होगा ? सव्यसाची अर्जुन को तो मैं इस युद्ध में मध्यस्थ (उदासीन) सा देख रहा हूँ। एकमात्र महाबाहु भीमसेन ही क्षत्रिय-धर्म का विचार करता हुआ केवल बाहुबल के भरोसे अपनी पूरी शक्ति लगाकर युद्ध कर रहा है। ‘महामना भीमसेन उत्साहपूर्वक अपनी वीर घातिनी गदा के द्वारा रथ, घोडे़, मनुष्य और हाथियों पर अपना दुष्कर पराक्रम प्रकट कर रहा है। ‘माननीय वीर श्रीकृष्ण! यदि इस तरह सरलतापूर्वक ही युद्ध किया जाय तो यह भीमसेन अकेला सौ वर्षों में भी शत्रु-सेना का विनाश नही कर सकता।[1] ‘केवल आपका यह सखा अर्जुन ही दिव्यास्त्रों का ज्ञाता है, परन्तु यह भी महामना भीष्मऔर द्रोण के द्वारा दग्घ होते हुए हमलोगों की उपेक्षा कर रहा है। ‘महामना भीष्म और द्रोण के दिव्यास्त्र बार-बार प्रयुक्त होकर सम्पूर्ण क्षत्रियों को भस्म कर डालेंगे। ‘श्रीकृष्ण! भीष्म क्रोध में भरकर अपने पक्ष के समस्त राजाओं के साथ मिलकर निश्चय ही हमलोगों का विनाश कर देंगे। जैसा उनका पराक्रम है, उससे यही सूचित होता है। ‘महाभाग योगेश्वर! आप ऐसे किसी महारथी को ढूंढ निकालिये, जो संग्रामभूमि में भीष्म को उसी प्रकार शांत कर दे, जैसे बादल दावानल को बुझा देता हैं। गोविन्द! आपकी कृपा से ही पाण्डव अपने शत्रुओं को मारकर स्वराज्य प्राप्त करके बन्धु-बान्धवोंसहित सुखी होंगे’। ऐसा कहकर महामना युधिष्ठिर शोक से व्याकुलचित्त हो बहुत देर तक मन को अन्तर्मुख करके ध्यानमग्न बैठे रहे।