Science, asked by saleemmisba1234, 6 months ago

yogik ki viyakhya kijiye in Hindi answer​

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कार्बनिक यौगिक

कार्बन के रासायनिक यौगिकों को कार्बनिक यौगिक कहते हैं। प्रकृति में इनकी संख्या 10 लाख से भी अधिक है। जीवन पद्धति में कार्बनिक यौगिकों की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है। इनमें हाइड्रोजन भी रहता है। ऐतिहासिक तथा परंपरा गत कारणों से कुछ कार्बन के यौगकों को कार्बनिक यौगिकों की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। इनमें कार्बनडाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड प्रमुख हैं। सभी जैव अणु जैसे कार्बोहाइड्रेट, अमीनो अम्ल, प्रोटीन, आरएनए तथा डीएनए कार्बनिक यौगिक ही हैं।

कार्बन और हाइड्रोजन के यौगिको को हाइड्रोकार्बन कहते हैं। मिथेन (CH4) सबसे छोटे अणुसूत्र का हाइड्रोकार्बन है। ईथेन (C2H6), प्रोपेन (C3H8) आदि इसके बाद आते हैं, जिनमें क्रमश: एक एक कार्बन जुड़ता जाता है। हाइड्रोकार्बन तीन श्रेणियों में विभाजित किए जा सकते हैं: ईथेन श्रेणी, एथिलीन श्रेणी और ऐसीटिलीन श्रेणी। ईथेन श्रेणी के हाइड्रोकार्बन संतृप्त हैं, अर्थात्‌ इनमें हाइड्रोजन की मात्रा और बढ़ाई नहीं जा सकती। एथिलीन में दो कार्बनों के बीच में एक द्विबंध (=) है, ऐसीटिलीन में त्रिगुण बंध (º) वाले यौगिक अस्थायी हैं।

लकड़ी या काष्ठ में दो पदार्थ मुख्यतया होते हैं, सेलुलोस और लिगनिन। सेलुलोस का साधारण सूत्र [(C6H10O5)n] है। (n) का मान इस सूत्र में ३,००० तक हो सकता है। इस प्रकार सेलुलोस के अणु बड़े लंबे आकार के होते हैं और सेलुलोस के धागे बन सकते हैं। लिगनिन प्लास्टिक बंधक का काम करता है। इसकी रचना अज्ञात है। इसमें बैन्ज़ीन वलय, मेथॉक्सी मूलक, (-OCH3), पार्श्व श्रृंखलाएँ हैं। लकड़ी को ३८०°C तक गरम करें तो इसमें से काफी मात्रा में एक द्रव निकलता है, जिसमें ऐसीटिक अम्ल, मेथिल ऐल्कोहॉल, ऐसीटोन आदि पदार्थ होते हैं। ये पदार्थ सेल्यूलोस और लिगनिन के विभाजन से बनते हैं (देखें, काठकोयला)।

ऐल्कोहलीय किण्वन

सुरा, आसव, मद्य, मैरेय आदि मादक पदार्थों को किण्वन विधि से तैयार करने की प्रथा बहुत पुरानी है और अच्छी सुराओं के लिए विशेष बीज-किण्व तैयार किए जाते थे, जिनकी उपस्थिति में यव (जौ), महुआ, गुड़, अंगूर के रस आदि से शराबें तैयार होती थीं। इन किण्वों के जो शराब बनाने वाले प्रेरकाणु होते हैं, उन्हें साधारण भाषा में यीस्ट कहा जाता है।

पूतिनाशक' (antisepic)

१८६७ ई. में लिस्टर (Lister) ने फीनोल में पूतिनाशक, या रोगाणुनाशक, गुण देखे। शौचालयों में "फिनायल' का, जिसमें कोलतार से प्राप्त अवयवों का मिश्रण है, जैसे क्रिसोल, क्रेसिलिक अम्ल, क्रिओसोट, क्लोरोज़ाइलीनोल इत्यादि, आज तक उपयोग किया जाता है। डेटोल (Dettol) में, जिसका इतना प्रचार है, क्लोरोजाइलीनोल, टर्पिनिओल, एल्कोहॉल और थोड़ा अरंडी के तेल का साबुन है। डी सी एम एक्स (DCMX) नाम से डाइक्लोरो-ज़ाइलीनोल का उपयोग १९५२ ई. से बहुत होने लगा है।

काष्ठ, सेलुलोस आदि से बने पदार्थों को यदि कीटाणुओं ओर फफूँदियों स बचाना हे, तो सैलिसित ऐनिलाइड (व्यापारिक नाम शिरलान (Shirlan)) का उपयोग करें, अथवा धातु साबुनों का उपयोग करें, जैसे जिंग नैफ्थीनेट और पारद के यौगिक, पेंटाक्लोराफ़ीनोल, डाइक्लोरोफीन [डी डी डी एम (DDDM) या डी डी एम (DDM): डाइहाइड्रॉक्सि डाइक्लोरो-डाइफेनिल मीथेन] आदि

सामान्य और स्थानिक निश्चेतक, या मूर्च्छोत्पादी

ईथर नामक द्रव का निश्चेतक के रूप में पहली बार प्रयोग हुआ और इसने प्रसव और शल्यकर्म दोनों में बड़ी सहायता दी। ईथर का क्वथनांक कम, अर्थात्‌ ३५°सें. है। यह इसका अवगुण हैं। १९५३ ई. में ट्राइफ्लोरो एथिल विनिल ईथर, CF3. CH2. OCH=CH2, को ईथर से कहीं अधिक श्रेष्ठ पाया गया। क्लोरोफ़ार्म, (CHCl3), एथिलक्लोराइड (CH3CH2Cl) और साइक्लोप्रोपेन, [(CH2)3], तो प्रसिद्ध है ही।

निद्राकारी

रोगी को अधिक कष्ट के समय निद्राकारियों का सेवन कराया जाता है, जिससे रोगी सो जाए। क्लोरलहाइड्रेट, [CCl3. CH(OH)2], का उपयोग इस कार्य में सबसे पुराना है। क्लोरोक्यूटोल [(CH3)2 C (CCl3) OH.]

तंत्रोत्तेजक

स्नायुओं और मस्तिष्क की तंत्रिकाओं को उत्तेजन देनेवाली चीजों में चाय, काफी आदि प्रसिद्ध हैं। इनमें कैफीन, ज़ैन्थीन और इनसे मिलते जुलते प्यूरीन (Purine) वर्ग के यौगिक पाए जाते हैं। कोला के बीजों में कैफीन और थिओब्रोमीन होता है। एरगोट (Ergot) वर्ग के ऐल्कैलायडों में पेशियों को उत्तेजित करने का गुण है। ये ऐल्कैलॉइड लिसर्गिक अम्ल (lysergic acid) के व्युत्पन्न हैं। यह अम्ल अब संश्लेषित कर लिया गया है।

एफीड्रिन (ephedrine), [C6H5. CH(OH). CH(NHCH3). CH3] और ऐड्रिनैलिन (adrenaline), [(OH)2 C6H4-CH (OH) CH2. NH. CH3], का उपयोग भी तंत्रोत्तेजना के सल्फा पिरिडिन, (M & B 693) नाम से विख्यात है। पिरिमिडिन व्युत्पन्न भी (जैसे सल्फडाइऐज़ीन) बड़े गुणकारी सिद्ध हुए हैं।

मलेरियानाशी

कुछ ओषधियाँ मलेरिया ज्वर दूर करने में बड़ी गुणकारी सिद्ध हुई हैं। सिनकोना की छाल से प्राप्त क्विनीन का नाम तो विख्यात है ही,। यह प्रथम संश्लेषित मलेरियानाशी था। १९३० ई.

===एंटिबायोटिक=== jai १९२८ ई. में सर ऐलेग्जेंडर फ्लेमिंग ने देखा कि कुछ वैक्टीरिया विशेष फफूँदियों की विद्यमानता में मरने लगते हैं। इसी परंपरा में पेनिसिलिन का आविष्कार हुआ। १९४६ ई. में पेनिसिलिन के बेन्ज़िल व्युत्पंन (पेनिसिलिन-g) का संश्लेषण भी कर लिया गया। इसकी रासायनिक संरचना निम्न है:

पेनिसिलिन-जी में, (R=C6H5 CH2), बेन्जिल मूलक है। दूसरे मूलक भी प्रतिस्थापित किए जा सकते हैं। भूमि, या मिट्टी के भीतर पाए जानेवाले अनेक सूक्ष्म जीवाणुओं का परीक्षण किया गया। सबसे पहली बार १९३९ ई. में ड्यूबॉस को सफलता मिली और उसने वैसिलस ब्रेविस नामक जीवाणु में से ग्रैमिसिडिन नामक पदार्थ प्राप्त किया जो पॉलिपेप्टाइडों का मिश्रण था। १९४४ ई. में स्ट्रेप्टोमाइसीज़ ग्रिसियस नाम जीवाणु का पता चला, जो राजयक्ष्मा के प्रति भी क्रियाशील था। १९४७ ई.

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