18 57 ka vidhro ka varnan Kare
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18 so 57 ka vidroh jo hua tha usmein hajaron log Mare gaye the
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मैं साहित्य अकादमी और उसके अध्यक्ष डॉ. गोपीचंद नारंग का हृदय से आभारी हूँ, जिन्होंने 1857 जैसे महत्वपूर्ण विषय पर मुझे आज यहाँ बोलने का मौका दिया| साहित्य महोत्सव की इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में देश के चुने हुए विद्वान्र और साहित्यकार भाग ले रहे हैं| आज यहाँ उच्च-स्तर के इतने बौद्घिकों को देखकर कोई भी वक्ता पर्याप्त प्रोत्साहित हो सकता है| यही तथ्य उसे घबरा देने के लिए भी काफी हो सकता है, लेकिन आप सब मित्र्गण हैं, इसीलिए मैं बिना विशेष उत्साहित हुए और बिना घबराए हुए आपसे 1857 के बारे में कुछ बात करना चाहता हूँ|
सबसे पहले तो मुझे इसी पर आपत्ति है कि 1857 की घटनाओं को हम ‘गदर’, ‘बगावत’, ‘विद्रोह’, ‘विप्लव’, ‘सिपाही-युद्घ’, ‘खूनी-गड़बड़’ या ‘खून-खराबा’ आदि कहें| 1857 को मैं स्वाधीनता संग्राम कहता हूँ| उसके चार मोटे-मोटे कारण हैं| एक तो मज़हब, दूसरा ज़ात और तीसरा वर्ग–भारतीय समाज को बाँटनेवाले इन तीनों कारणों का 1857 में अतिक्रमण हो गया था| चौथा यह संग्राम केवल मेरठ, दिल्ली, कानपुर और झांसी 1857 पर सबसे पहले लिखी गई जॉन काये की पुस्तक का शीर्षक था, ‘ए हिस्टरी ऑफ द सिपॉय वार इन इंडिया 1857-8’| जॉन काये के आकस्मिक निधन के बाद जॉर्ज मालेसन ने उसी पुस्तक के जो अगले खंड प्रकाशित किए, उनका नाम रख दिया, ‘हिस्टरी ऑफ द इंडियन म्यूटिनी’| काये ने जिसे युद्घ कहा था, उसे मालेसन ने म्युटिनी बना दिया| यही शब्द म्युटिलेट होता हुआ भारतीय इतिहासकारों की कलम से भी चिपक गया| चाहे डॉ. रमेशचंद्र मजूमदार हों, डॉ. शशिभूषण चौधरी हों या डॉ. सुरेन्द्रनाथ सेन हों, लगभग सभी भारतीय इतिहासकारों ने 1857 को भारत का स्वाधीनता-संग्राम कहने में कुछ न कुछ संकोच दिखाया है| व्यावसायिक इतिहासकार अपने इस संकोच को उचित ठहराने के लिए कुछ ठोस तर्क अवश्य उपस्थित करते हैं लेकिन मैं उनकी विद्वता का पूर्ण सम्मान करते हुए अत्यन्त विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि भारत की आज़ादी के साठ साल के बावजूद हमारे इतिहासकार और राजनीतिशास्त्र अपनी औपनिवेशिक मनोवृत्ति से मुक्त नहीं हो पाए हैं| अंगे्रजों के प्रयाण के बाद भारत में से राजनैतिक उपनिवेशवाद का अंत तो हो गया, लेकिन बौद्घिक उपनिवेशवाद दिनोंदिन बढ़ता चला जा रहा है| 1857 की औपनिवेशिकता के अनेक निन्दनीय अंश आज भी हमारी चेतना और व्यवहार के अभिन्न अंग बने हुए हैं| केवल अंग्रेजी स्रोतों के आधार पर लिखे गए शोध-ग्रंथों से आप क्या आशा कर सकते हैं ? कुछ विलायती और कुछ भारतीय स्रोतों के आधार पर लिखी गई ताज़तरीन किताब ‘द लास्ट मुगल’ में भी विलियम डेलरिंपल ने अनेक गंभीर भूलें छोड़ दी है| उनके विश्लेषण और निष्कर्षों पर भी काये और मालेसन के भूत मंडराते हुए दिखाई पड़ते हैं| अंगे्रजी भाषा के स्रोतों की मजबूरी तो कार्ल मार्क्स और विनायक दामोदर सावरकर के सामने भी थी लेकिन ये दो महापुरुष ऐसे हुए, जिन्हें औपनिवेशिक मनोवृत्ति जकड़ नहीं सकी| एक सज्जन जर्मन थे और दूसरे भारतीय ! दोनों में से अंग्रेज कोई नहीं था और यह भी कह दूँ कि दोनों में से कोई भी बाक़ायदा इतिहासकार भी नहीं था| दोनों ही मंत्र्-द्रष्टा थे| मार्क्स ने तो 1857 की घटनाओं पर उसी समय लिखा| ‘न्यूयॉर्क डेली टि्रब्यून’ में छपे अपने लेखों में मार्क्स ने ठोस आँकड़ों और तथ्यों के आधार पर सिद्घ किया कि अंग्रेजी अत्याचारों के कारण संपूर्ण भारत बारूद के ढेर पर बैठा हुआ था| मार्क्स ने साफ़-साफ़ लिखा कि 1857 भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम था| यही शीर्षक अपने सवा छह सौ पृष्ठों के ग्रंथ का विनायक दामोदर सावरकर ने दिया था| 1857 के ठीक 50 साल बाद और अब से ठीक एक सौ साल पहले 1907 में 24 वर्षीय सावरकर ने ‘1857 च्या स्वातंत्र््रय समरांचा इतिहास’ नामक ग्रंथ मराठी में लिखा| यह अमर ग्रंथ छपने के पहले ही प्रतिबंधित हो गया| इसका अंग्रेजी अनुवाद यूरोप में छपा|
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