1857 Ki Kranti ke pakshat angrejon ne kya kya badlav kiye
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1857 के विद्रोह से अंग्रेजों को इस बात का भलीभांति एहसास हो चुका था कि एक सुसंगठित जन विद्रोह कभी भी ब्रिटिश शासन के लिये एक गंभीर चुनौती बन सकता है। इस विद्रोह में प्रशासन एवं जनता के मध्य संपर्क का अभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुआ। साम्राज्यवादी सरकार को यह अनुभव हो गया कि शासन को जन सामान्य से सम्पर्क बनाये रखकर ही उसे प्रशासन से जोड़ा जा सकता है। इसके साथ ही उन्हें अहसास हुआ कि प्रशासन को भारतीयों की सभ्यता, संस्कारों एवं रीति-रिवाजों से भलीभांति अवगत होना है तो उसके लिये जनता का सहयोग अपरिहार्य है इससे प्रशासन को सुदृढ़ता तो मिलेगी ही, उसे 1857 जैसी घटनाओं को ज्यादा कुशलतापूर्वक हल करने में भी सहायता मिल सकेगी।
19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में औद्योगिक क्रांति उत्तरोत्तर सघन होती गयी तथा उसका तेजी से प्रसार हुआ। इस अवधि में अमेरिका, जापान तथा यूरोपीय देश नयी औद्योगिक शक्तियों के रूप में उभरे तथा कच्चे माल, विनिर्मित सामान के लिये बाजार तथा पूंजी विनिवेश के लिये उपनिवेशों में इन औद्योगिक शक्तियों के मध्य गलाकाट प्रतियोगिता प्रारंभ हो गयी। तत्कालीन समय में विभिन्न शक्तिशाली राष्ट्रों के मध्य ये कारक ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण थे। वित एवं विनिर्मित सामान के क्षेत्र में ब्रिटेन की सर्वोच्चता का अंत हो गया। इस समय रेलवे में ब्रिटिश पूंजी का भारी निवेश हुआ तथा ब्रिटेन द्वारा भारत सरकार को ऋण के रूप में प्रचुर मात्रा में धन दिया गया। भारत में इस धन का निवेश मुख्यतः चाय बागानों, कोयला खदानों, जूट मिलों, जहाजरानी, छोटे उद्योगों एवं बैकिंग इत्यादि में किया गया।
इन सभी कारकों ने मिलकर भारत में उपनिवेशवाद का एक नया युग प्रारंभ किया। भारत में उपनिवेशी सरकार का मुख्य लक्ष्य अपनी स्थिति को सुदृढ़ एवं सुरक्षित करना था, जिससे कि वह ब्रिटेन के आर्थिक तथा वाणिज्यिक हितों की रक्षा कर सके तथा विश्व के अन्य भागों में जब भी और जहां भी संभव हो इसका विस्तार कर सके। विभिन्न अंग्रेजी वाइसरायों तथा गवर्नर-जनरलों यथा-लिटन,डफरिन, लैंसडाउन, एल्गिन, कर्जन तथा अन्य सभी ने साम्राज्यवादी नियंत्रण तथा साम्राज्यवादी विचारधारा को सुदृढ़ करने का प्रयास किया, जिसकी झलक इन प्रशासकों की नीतियों एवं वक्तव्यों से मिलती है। भारत में सरकारी ढांचे एवं सरकारी नीतियों में परिवर्तन का प्रभाव आधुनिक भारत में विभिन्न रूपों में परिलक्षित होता है।
प्रशासनः केंद्रीय, प्रांतीय एवं स्थानीय
केंद्रीय सरकार
भारत सरकार को बेहतर बनाने के लिये 1858 के भारत सरकार अधिनियम द्वारा भारत का शासन कंपनी के हाथों से लेकर क्राउन के अधीन कर दिया गया। कठिन परिस्थितियों में कंपनी प्रशासन की सीमायें 1857 के विद्रोह के समय उजागर हो चुकी थीं; इसके साथ ही कंपनी प्रशासन की जवाबदेही में कमी भी प्रकट हो गयी थी। अधिनियम में प्रावधान किया गया कि अब भारत का प्रशासन ब्रिटिश साम्राज्ञी के नाम से चलाया जायेगा। इस उद्देश्य के लिये डायरेक्टरों की सभा (Court of Directors), तथा अधिकार सभा (BoardofControl) को समाप्त कर दिया गया तथा उनके समस्त अधिकार भारत सचिव (secretary of State for India) को दे दिये गये। भारत सचिव, ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य था, इसकी सहायता के लिये 15 सदस्यों की एक सभा भारत परिषद (India Council) की स्थापना की गयी। भारत सचिव, ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था। सभी महत्वपूर्ण कदम भारत सचिव द्वारा ही उठाये जाने थे तथा सभी मसलों पर अंतिम निर्णय उसी को लेना था। भारत परिषद केवल सलाहकारी परिषद थी। (इस प्रकार 1784 में पिट्स इंडिया अधिनियम द्वारा प्रारंभ की गयी द्वैध शासन व्यवस्था का अंत हो गया)। लेकिन इतना होते हुये भी भारत से संबंधित सभी शक्तियां ब्रिटिश संसद में ही निहित थीं।
गवर्नर-जनरल अब चूंकि क्राउन का प्रतिनिधि था, अतः उसे वायसराय कहा जाने लगा। यद्यपि इस उपाधि का कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं था न ही ब्रिटिश संसद ने इस उपाधि का कभी प्रयोग किया परंतु जनसाधारण द्वारा इसका उपयोग किया जाने लगा। वायसराय के लिये एक कार्यकारिणी परिषद की नियुक्ति की गयी, जिसके सदस्य विभिन्न विभागों के प्रमुखों के रूप में काम करते थे, साथ ही वे वायसराय के सलाहकार भी थे।
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