250 words essay on Ishwar Chandra Vidyasagar . in Hindi.
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ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर जिले में वीरसिंह नामक गांव में सन् 1891 में एक अत्यन्त गरीब बंगाली परिवार में हुआ था । निर्धन परिवार में जन्म लेकर भी उन्होंने अपने शिक्षा, संस्कार, सादगी, ईमानदारी, परिश्रम, दयालुता व स्वावलम्बन के ऐसे आदर्श प्राप्त किये, जिनके कारण वे अमर हो गये । वे अपनी धार्मिक तथा दयालु विचारों वाली माता से रामायण, महाभारत, श्रवण की मातृभक्ति तथा वीर शिवा की कहानियां सुना करते थे । पांच वर्ष की अवस्था में गांव की पाठशाला में भरती होने के बाद उनकी बुद्धिमानी और सदचरित्रता से सभी अध्यापक अत्यन्त प्रभावित थे । कक्षा में यदि कोई लड़का कमजोर या असहाय होता, तो उसके पास स्वयं जाकर उसे पढ़ा देते और उसकी यथासम्भव सहायता करते ।
बाल्यावस्था में वे हकलाते थे, इस कारण अंग्रेज अध्यापक ने उन्हें दूसरी श्रेणी में पास किया । इस बात पर विद्यासागर इतना अधिक रोये कि उन्होंने कई दिनों तक ठीक से भोजन ग्रहण तक नहीं किया । स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उनके पिता घोर आर्थिक तंगी के बाद भी उन्हें कलकत्ता ले गये । अपने गांव से पैदल ही कलकत्ता पहुंचे ।
इस गरीब पिता-पुत्र के पास पैसे तो थे नहीं, अत: कुछ दिन तंगहाली में गुजारे । बड़ी भागदौड़ के बाद पिता को दो रुपये महीने की नौकरी मिली । विद्यासागर की पढ़ाई शुरू हो गयी । पिताजी की मेहनत और ईमानदारी के कारण उनकी तनख्वाह दो रुपये से दस रुपये हो गयी । ईश्वरचन्द्र अब संस्कृत कॉलेज के विद्यार्थी थे । इसी बीच काम की तलाश कर वे पढ़ाई-लिखाई के साथ जो रुपये कमाने लगे, उसे अपनी मां को भेजने लगे ।
म्यूनिसिपेलिटी के लालटेन की रोशनी में पढ़ने के कारण तेल का खर्च बच जाता था । स्वयं ही भोजन बनाकर बर्तन साफ कर पढ़ाई करना उनकी नियति का एक अंग था । कॉलेज की पढ़ाई अबल दरजे में पास करने पर उनके अंग्रेज प्रिंसिपल ने स्वयं उनके ज्ञान की परीक्षा ली । इस बुद्धिमान् और होनहार छात्र का सम्मान करने का प्रस्ताव उन्होंने समिति के सामने रखा ।
हजारों विद्यार्थियों और अध्यापकों की भीड़ में कॉलेज की ओर से उन्हें न केवल विद्यासागर की उपाधि दी गयी, वरन उनका एक चित्र भी कॉलेज के भवन में लगा दिया । 21 वर्ष की अवस्था में विद्यासागर की उपाधि मिलने के बाद कई संस्थाओं से उन्हें नौकरी का आमन्त्रण मिला, किन्तु अन्याय, बेईमानी और दबाव के बीच काम न कर सकने वाले विद्यासागर ने कई नौकरियों से इस्तीफा दे दिया ।
कलकत्ता के फोर्ट विलियम कॉलेज के प्रिंसिपल विद्यासागर के इन गुणों से प्रभावित होकर उन्हें कॉलेज का प्रोफेसर बनाना चाहते थे । विद्यासागर ने अपने पहले आये हुए एक शास्त्री को पहले मौका देने की बात कहकर ईमानदारी का परिचय दिया । प्रिंसिपल साहब ने दोनों को ही प्रोफेसर बना दिया ।
इस कॉलेज के विद्यार्थियों में अनुशासन जैसी कोई चीज नहीं थी ।एक बार तो कक्षा के उद्दण्ड लड़कों द्वारा अध्यापकों का अपमान करने पर विद्यासागर ने सारी कक्षा को कॉलेज से बाहर निकाल दिया । सब यह सोचने लगे कि विद्यासागर को अब तो बाजार में तरकारी और गुड़ बेचकर गुजारा करना होगा, किन्तु अध्यापकों के मान-सम्मान व विद्यार्थियों की उद्दण्डता को लेकर समिति ने जब उनके विचार सुने, तो उन्होंने सारा मामला विद्यासागर पर छोड़ दिया । लड़कों को उनसे माफी मांगनी पड़ी ।
ईमानदारी, परिश्रम तथा स्वयं का काम स्वयं करने वाले इस विद्या के धनी व्यक्ति को सारा भारतवर्ष मानवता व ईश्वरीय गुणों का पर्याय मानता है । ऐसे देवतुल्य महामानव की मृत्यु सन् 1891 में हो गयी । विद्या के इस सागर ने अपने जीवनकाल में 52 ग्रन्धों की रचना भी की थी, जो उनके सच्चे विद्याप्रेमी होने का प्रमाण है
ईश्वर चंद्र विद्यासागर उन्नीसवीं सदी के एक समाज सुधारक और विद्वान थे। उनका जन्म 6 सितंबर, 1820 को भारत के बंगाल में बिरसिंह नामक गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वह असाधारण कौशल के साथ एक महान मानवतावादी थे। उन्होंने कलकत्ता के संस्कृत कॉलेज से स्नातक किया। वह बचपन से ही बहुत बुद्धिमान थे और चीजों को आसानी से समझ सकते थे। वह एक दयालु व्यक्ति थे और हमेशा गरीब लोगों की मदद करते थे। उन्होंने पाया कि ज्यादातर लड़कियों की शादी कम उम्र में हो जाती थी और कभी-कभी वे विधवा हो जाती थीं और उनका बाकी जीवन बर्बाद हो जाता था। वह हिंदू समाज के रूढ़िवादी ब्राह्मणों के खिलाफ गए और विधवा-पुनर्विवाह का समर्थन किया।
उन्होंने समाज में लड़कियों के उत्थान के लिए काम किया और उन लड़कियों के लिए स्कूल स्थापित करने के लिए कड़ी मेहनत की जिन्हें उन दिनों अपने माता-पिता द्वारा स्कूल जाने की अनुमति नहीं थी। वह बाल विवाह और बहुविवाह के खिलाफ भी थे। एक शास्त्रीय विद्वान होने के बावजूद, उन्होंने खुद को अंग्रेजी में शिक्षित किया और पूर्वी और पश्चिमी संस्कृति के मिश्रण का प्रतिनिधित्व करने के लिए आए। उन्होंने पश्चिमी शिक्षा और संस्कृति को अपनाया। उन्होंने गैर-ब्राह्मण लड़कों के लिए संस्कृत कॉलेज के द्वार खोले। उन्होंने संस्कृत कॉलेज में अंग्रेजी कक्षाएं शुरू कीं ताकि शास्त्रीय विद्वानों को कुछ अंग्रेजी शिक्षा मिल सके। उन्होंने गर्मियों की छुट्टी और रविवार को छुट्टियों के रूप में पेश किया।
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने उन्हें बंगाल का पहला "शिक्षागुरु" बताया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। वह उस समय के प्रसिद्ध पत्रिका "सोमप्रकाश" के संपादक थे। वह "तातबोधिनी" और "हिंदू देशभक्त" के प्रकाशन से जुड़े थे।
ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने अपनी अंतिम सांस 29 जुलाई 1821 को 71 वर्ष की आयु में ली।