Hindi, asked by rajeshmanocha73, 1 year ago

A short essay on Guru govind dau khade

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Answered by AryaBandal
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जन्माष्टमी और शिक्षक दिवस का संयोग एक साथ आने से, एक बार फिर यह पंक्तियां चरितार्थ हो गई । जी हां, जन्माष्टमी और शिक्षक दिवस दोनों एक साथ होने के कारण, हम इन पंक्तियों के भाव को बेहद करीब से महसूस कर सकते हैं। क्योंकि इस दिन एक तरफ तो भगवान कृष्ण अर्थात गोविंद के जन्मोत्सव की धूम है, तो दूसरी तरफ गुरु अर्थात शिक्षक के सम्मान में शिक्षक दिवस मनाया जा रहा है। 

क्या पता यह संयोग, कलियु्ग और द्वापर युग में इन पक्तियों की अलग-अलग प्रासंगिकता दर्शाने के लिए ही आया हो, ईश्वर की भाषा तो प्रत्यक्ष संकेतों में ही छिपी होती है। 
 

हमारे सामने गुरु और गोविंद दोनों ही खड़े हैं, लेकिन दोनों का अपना ही महत्व है। अंतर केवल इतना है, कि भगवान स्वयं गुरु को दिया बताते हों, लेकिन आज के परिवेश में आध्यात्मिक गुरु का मिलना या मिलने के बाद भी उन्हें पहचानना हमारे बस की बात नहीं, इसलिए वर्तमान परिवेश में गुरु और गोविंद में से किसी एक को अधिक या कम महत्व नहीं दिया जा सकता। आज के दौर में लोग शिक्षा देने वाले अध्यापक को आध्यात्मिक गुरु से ज्यादा असली मान सकते हैं। इसका प्रमुख कारण है, अध्यात्म जगत में छल का बढ़ना। जब आसाराम बापू और राधे मां जैसे गुरु माने जाने वाले लोग, छल के आरोपों से घि‍रने लगते हैं, तो एक साधारण मनुष्य होने के नाते, हममें से कोई भी, किसी आध्यात्मकि गुरु पर विश्वास नहीं कर पाते। ऐसे में उस गुरु के प्रति सम्मान अधिक हो जाता है, जिसने बगैर छल के हमें बचपन से आज तक, पहले शब्द से लेकर वाक्य तक की शिक्षा दी, वह भी बगैर किसी लालच या स्वार्थ के। 

 

दूसरी बात, सम्मान के हकदार वे शिक्षक भी, इंसान होने के नाते अंतत: गोविंद को ही सर्वोपरि मानते हैं, तो फिर हम भी तो उसकी बनाई हुई कायनात के ही अंश हैं। कबीरदास जी की उपर्युक्त पंक्तियों की अपनी गरिमा है, जो सर्वकालिक है, इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन कलियुग में जब आध्यात्मिक गुरुओं की गरिमा और महिमा, दोनों ही संदेहास्पद हो, तब निश्चित ही समयानुसार इन पंक्तियों विपरीत अर्थ निकलना और प्रत्यक्ष तौर पर दिखाई देना भी स्वाभाविक है। 

आलकी की पालकी जय कन्हैया लाल की... 

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