आदिवासियों के संघर्ष का क्या परिणाम था
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Hyy
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बीते दिनों सोनभद्र में भूमाफियाओं के हाथों आदिवासियों का वीभत्स नरसंहार सुर्खियों में था. विवाद की जड़ में जमीन का संघर्ष था. इसी सोनभद्र से सटा है मध्य प्रदेश का जिला सिंगरौली. सोनभद्र और सिंगरौली दोनों ही खनिज बहुल क्षेत्र हैं. वर्षों से इन क्षेत्रों को ऊर्जा राजधानी के तौर पर प्रायोजित किया जाता रहा है, पर इसके नाम पर वहां के आदिवासियों को मिलता है विस्थापन और उनके जल-जंगल-जमीन के अधिकार से वंचित होने का दर्द. उनके इसी संघर्ष की पड़ताल अविनाश कुमार चंचल अपनी किताब सिंगरौली फाइल्स में करते हैं.
इसमें जीतलाल वैगा की दास्तान है जो विस्थापित होकर एक टिन शेड के नीचे रहने को मजबूर हैं, तो कांति सिंह अपने जंगल बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं. एक अन्य महिला फुलझरिया जब अपने बेटे का कैंसर का इलाज कराके जबलपुर से वापस लौटीं तो देखा कि उनका घर तोड़ दिया गया है. फुलझरियां जैसी कई दलित-आदिवासी महिलाएं ऐसी परिस्थितियों से जूझ रही हैं. किताब जहां महान के जंगलों में महुआ बीनने के उत्सव से शुरू होती है, वह अगले ही पल चिल्का डांड की बर्बादी, विस्थापन, बीमारियां, बेरोजगारी और मूलभूत सुविधाओं के अभाव की तरफ ले जाती है.
वह पाठकों के कंफर्ट जोन को तोड़ती है और उन्हें झकझोरती है. पारंपरिक तौर पर आदिवासी अपने जंगलों के संसाधनों से ही जीवन-यापन करने में सक्षम रहते हैं, मसलन महुआ बीनने की परंपरा. लेकिन एक तो उन्हें कथित विकास का लाभ भी नहीं मिला, तिस पर उन्हें उनकी पुरानी परंपराओं और अधिकारों से भी वंचित होना पड़ रहा है. अविनाश चंचल सिंगरौली की कहानियों के मार्फत विकास की ऐसी ही सरकारी अवधारणा पर सवाल उठाते हैं. जाहिर है, इस किताब से आदिवासियों की संघर्ष से सुलगती जिंदगी का पता चलता है.
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