Hindi, asked by shubhijais6346, 9 months ago

‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का सारांश/कथासार अपने शब्दों में लिखिए ।

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Answered by rajharshita176
3

sorry it is tough

I don't know............

Answered by shishir303
7

अग्रपूजा खंडकाव्य का सारांश...

‘अग्र पूजा’ खंडकाव्य की रचना ‘राम बहोरी शुक्ल’ ने की है। इस खंडकाव्य में भारतीय जनजीवन को प्रभावित करने वाले युगपुरुष भगवान श्री कृष्ण के पावन चरित्र को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखने का प्रयत्न किया गया है।  

युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ में भगवान श्री कृष्ण को ही सर्वश्रेष्ठ मानकर उनकी पूजा की थी। इसी को आधार बनाकर इस खंडकाव्य का नामकरण किया गया। यह खंडकाव्य 6 सर्गों में विभाजित है।  

अग्र पूजा खंडकाव्य का पहला सर्ग पूर्वाभास है। इस सर्ग की कथा का प्रारंभ दुर्योधन द्वारा सारे पांडवों का विनाश करने के लिए लाक्षागृह में आग लगाने से होता है। दुर्योधन को यह पूर्ण रुप से विश्वास हो गया है कि पांडव लाक्षागृह की आग में जलकर भस्म हो गए हैं, परंतु पांडव उसी स्थान से जीवित निकलकर बच जाते हैं और वेश बदलकर भटकते-भटकते द्रोपती के स्वयंवर में पहुंच जाते हैं। स्वयंवर की शर्त पूरी करके अर्जुन द्रौपदी को जीत लेता है। कुंती की इच्छा अनुसार द्रौपदी का पांचो पांडवों से विवाह हो जाता है। दुर्योधन को पांडवों के जीवित होने का पता चलता है और वह ईर्ष्या की अग्नि में जलने लगता है।  

तीसरे सर्ग में भगवान श्री कृष्ण ने विश्वकर्मा की सहायता से खांडव वन प्रदेश में इंद्रप्रस्थ नाम के एक भव्य नगर का निर्माण करवाया और उसका नाम इंद्रप्रस्थ रखा।  

श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को इंद्रप्रस्थ का राजा बना कर चले गए। युधिष्ठिर सफलतापूर्वक इंद्रप्रस्थ पर शासन  करने लगे। पांडवों ने सोचा कि नारी उनके पारस्परिक संघर्ष का कारण न बन जाए। इसलिये उन्होंने द्रोपदी को बारी-बारी से 1-1 साल तक अलग-अलग अपने साथ रखने का निश्चय किया। द्रौपदी को अनुचित रूप से देखने के शाप के कारण अर्जुन 12 वर्षों तक वन के लिए चले गए और वन में  भटकते भटकते द्वारका पहुंचे। वहां श्री कृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह करके इन्द्रप्रस्थ पहुँचे। युधिष्ठिर का राज सुख और शांति से चल रहा था।युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ को सम्पन्न करने के लिये जरासंध का वध करते हुए यज्ञ को संपन्न किया गया और अपने चारों भाइयों को दिग्विजय करने के लिए चारों दिशा में भेज दिया।  

चतुर्थ सर्ग में प्रस्थान का सर्ग है। यहां पर राजसूय यज्ञ से पहले की तैयारियों का वर्णन किया गया है। श्री कृष्ण को बुलाने के लिए स्वयं अर्जुन द्वारका गए। श्री कृष्ण अपनी विशाल सेना लेकर यज्ञ में पहुंचे। युधिष्ठिर ने नगर के बाहर बड़े सम्मान से उनका स्वागत किया। श्री कृष्ण के प्रभाव और स्वागत सत्कार को देखकर रुक्मी और शिशुपाल ईर्ष्या से जल उठे।  

खंडकाव्य का पांचवा सर्य राजसूय यज्ञ का है। राजसूय यज्ञ में सब ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया था। यज्ञ की व्यवस्था के संचालन के लिए सभी स्वजनों को काम बांट दिए गए थे। श्री कृष्ण ने अपनी मर्जी से ब्राह्मणों के चरण धोने का कार्य अपने ऊपर ले लिया। श्री कृष्ण को सब लोग प्रथम पूज्य मानने लगे। लेकिन शिशुपाल यह मानने को तैयार नहीं हुआ और उसने श्रीकृष्ण के चरित्र पर दोषारोपण करना आरंभ कर दिया। वो भरी सभा में श्रीकृष्ण को अपशब्द कहने लगा। श्री कृष्ण ने उसे सावधान किया अंततः सौ बार अपशब्द करने पर श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया।  

छठा और अंतिम सर्ग राजसूय यज्ञ के समापन के संबंध में है। शिशुपाल के वध का राजसूय यज्ञ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यज्ञ भली-भांति संपन्न हुआ और सभी ऋषि मुनियों को उचित दान विदा किया गया।

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