anuched lekhan on sarv Dharm sambhav in hindi
Pls answer it..
I will mark them as brainliest....
no spamming..
Answers
Answer:
धर्म की प्रासंगिकता एवं प्रयोजनशीलता शान्ति, व्यवस्था, स्वतंत्रता, समता, प्रगति एवं विकास से सम्बन्धित समाज सापेक्ष परिस्थितियों के निर्माण में भी निहित है।
धर्म का सम्बन्ध आचरण से है। धर्म आचरणमूलक है। दर्शन एवं धर्म में अन्तर है। दर्शन मार्ग दिखाता है, धर्म की प्रेरणा से हम उस मार्ग पर बढ़ते हैं। हम किस प्रकार का आचरण करें- यह ज्ञान दर्शन से प्राप्त होता है। जिस समाज में दर्शन एवं धर्म में सामंजस्य रहता है, ज्ञान एवं क्रिया में अनुरूपता होती है, उस समाज में शान्ति होती है तथा सदस्यों में परस्पर मैत्री-भाव रहता है।
भारत वर्ष में दर्शन और चिन्तन के धरातल पर जितनी विशालता, व्यापकता एवं मानवीयता रही है, उतनी आचरण के धरातल पर नहीं रही। जब चिन्तन एवं व्यवहार में विरोध उत्पन्न हो गया तो भारतीय समाज की प्रगति एवं विकास की धारा भी अवरुद्ध हो गई। दर्शन के धरातल पर उपनिषद् के चिन्तकों ने प्रतिपादित किया कि यह जितना भी स्थावर जंगम संसार है, वह सब एक ही परब्रह्म के द्वारा आच्छादित है।
उन्होंने संसार के सभी प्राणियों को 'आत्मवत्' मानने एवं जानने का उद्घोष किया, मगर सामाजिक धरातल पर समाज के सदस्यों को उनके गुणों के आधार पर नहीं अपितु जन्म के आधार पर जातियों, उपजातियों, वर्णों, उपवर्णों में बाँट दिया तथा इनके बीच ऊँच-नीच की दीवारें खड़ी कर दीं।
धर्म साधना की अपेक्षा रखता है। धर्म के साधक को राग-द्वेषरहित होना होता है। धार्मिक चित्त प्राणिमात्र की पीड़ा से द्रवित होता है। तुलसीदास ने कहा- 'परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई'। सत्य के साधक को बाहरी प्रलोभन अभिभूत करने का प्रयास करते हैं। मगर वह एकाग्रचित्त से संयम में रहता है। प्रत्येक धर्म के ऋषि, मुनि, पैगम्बर, संत, महात्मा आदि तपस्वियों ने धर्म को अपनी जिन्दगी में उतारा। उन लोगों ने धर्म को ओढ़ा नहीं अपितु जिया। साधना, तप, त्याग आदि दुष्कर हैं। ये भोग से नहीं, संयम से सधते हैं। धर्म के वास्तविक स्वरूप को आचरण में उतारना सरल कार्य नहीं है। महापुरुष ही सच्ची धर्म-साधना कर पाते हैं।
इन महापुरुषों के अनुयायी जब अपने आराध्य-साधकों जैसा जीवन नहीं जी पाते तो उनके नाम पर सम्प्रदाय, पंथ आदि संगठनों का निर्माण कर, भक्तों के बीच आराध्य की जय-जयकार करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। अनुयायी साधक नहीं रह जाते, उपदेशक हो जाते हैं। ये धार्मिक व्यक्ति नहीं होते, धर्म के व्याख्याता होते हैं। इनका उद्देश्य धर्म के अनुसार अपना चरित्र निर्मित करना नहीं होता, धर्म का आख्यान मात्र करना होता है। जब इनमें स्वार्थ-लिप्सा का उद्रेक होता है तो ये धर्म-तत्वों की व्याख्या अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए करने लगते हैं।
Answer:
Explanation:
Answer:
धर्म की प्रासंगिकता एवं प्रयोजनशीलता शान्ति, व्यवस्था, स्वतंत्रता, समता, प्रगति एवं विकास से सम्बन्धित समाज सापेक्ष परिस्थितियों के निर्माण में भी निहित है।
धर्म का सम्बन्ध आचरण से है। धर्म आचरणमूलक है। दर्शन एवं धर्म में अन्तर है। दर्शन मार्ग दिखाता है, धर्म की प्रेरणा से हम उस मार्ग पर बढ़ते हैं। हम किस प्रकार का आचरण करें- यह ज्ञान दर्शन से प्राप्त होता है। जिस समाज में दर्शन एवं धर्म में सामंजस्य रहता है, ज्ञान एवं क्रिया में अनुरूपता होती है, उस समाज में शान्ति होती है तथा सदस्यों में परस्पर मैत्री-भाव रहता है।
भारत वर्ष में दर्शन और चिन्तन के धरातल पर जितनी विशालता, व्यापकता एवं मानवीयता रही है, उतनी आचरण के धरातल पर नहीं रही। जब चिन्तन एवं व्यवहार में विरोध उत्पन्न हो गया तो भारतीय समाज की प्रगति एवं विकास की धारा भी अवरुद्ध हो गई। दर्शन के धरातल पर उपनिषद् के चिन्तकों ने प्रतिपादित किया कि यह जितना भी स्थावर जंगम संसार है, वह सब एक ही परब्रह्म के द्वारा आच्छादित है।
उन्होंने संसार के सभी प्राणियों को 'आत्मवत्' मानने एवं जानने का उद्घोष किया, मगर सामाजिक धरातल पर समाज के सदस्यों को उनके गुणों के आधार पर नहीं अपितु जन्म के आधार पर जातियों, उपजातियों, वर्णों, उपवर्णों में बाँट दिया तथा इनके बीच ऊँच-नीच की दीवारें खड़ी कर दीं।
धर्म साधना की अपेक्षा रखता है। धर्म के साधक को राग-द्वेषरहित होना होता है। धार्मिक चित्त प्राणिमात्र की पीड़ा से द्रवित होता है। तुलसीदास ने कहा- 'परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई'। सत्य के साधक को बाहरी प्रलोभन अभिभूत करने का प्रयास करते हैं। मगर वह एकाग्रचित्त से संयम में रहता है। प्रत्येक धर्म के ऋषि, मुनि, पैगम्बर, संत, महात्मा आदि तपस्वियों ने धर्म को अपनी जिन्दगी में उतारा। उन लोगों ने धर्म को ओढ़ा नहीं अपितु जिया। साधना, तप, त्याग आदि दुष्कर हैं। ये भोग से नहीं, संयम से सधते हैं। धर्म के वास्तविक स्वरूप को आचरण में उतारना सरल कार्य नहीं है। महापुरुष ही सच्ची धर्म-साधना कर पाते हैं।
इन महापुरुषों के अनुयायी जब अपने आराध्य-साधकों जैसा जीवन नहीं जी पाते तो उनके नाम पर सम्प्रदाय, पंथ आदि संगठनों का निर्माण कर, भक्तों के बीच आराध्य की जय-जयकार करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। अनुयायी साधक नहीं रह जाते, उपदेशक हो जाते हैं। ये धार्मिक व्यक्ति नहीं होते, धर्म के व्याख्याता होते हैं। इनका उद्देश्य धर्म के अनुसार अपना चरित्र निर्मित करना नहीं होता, धर्म का आख्यान मात्र करना होता है। जब इनमें स्वार्थ-लिप्सा का उद्रेक होता है तो ये धर्म-तत्वों की व्याख्या अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए करने लगते हैं।
Read more on Brainly.in - https://brainly.in/question/13741203#readmore