अपनी कल्पना के आधार पर कबीरदास जी से भेंटवार्ता
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अनेक शताब्दियां बीत गई लेकिन आज भी संत कबीरदास और उनके दोहे प्रासंगिक व जीवन्त है।उनके हर दोहे में कोई न कोई नसीहत,कोई न कोई सीख जरूर समाहित है।संत कबीर दास का
जन्म सन 1398 में लहरतारा ताल, काशी में होना माना जाता है।हालांकि उनके जन्म को लेकर उन्ही के द्वारा रचित दोहे में उनके जन्म का साल 1455 होने का जिक्र है।जिस कारण उनके जन्म साल को लेकर कोई सटीक टिप्पणी नही की जा सकी।
चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए। जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रगट भए॥
घन गरजें दामिनि दमके बूँदे बरषें झर लाग गए। लहर तलाब में कमल खिले तहँ कबीर भानु प्रगट भए॥
उनकी माता का नाम नीमा व पिता का नाम नीरू था जबकि उनकी शादी लोई के साथ हुई थी।जिससे उन्हें एक पुत्र कमाल व एक पुत्री कमाली पैदा हुए ।कबीर दास ने अपनी कर्म भूमि काशी को ही बनाया और यही से देश दुनिया के लिए समाज सुधार की अलख जगाई। सूत कातकर कपड़ा बनाना उनका आजीविका का साधन था तो एक कवि के रूप में वे चलते फिरते शब्द कोष और उपदेशक नजर आते थे।उनकी मुख्य रचनाओं में साखी, सबद, रमैनी आज भी विभिन्न शैक्षणिक पाठ्यक्रमो का हिस्सा है।उनकी कोई विशेष भाषा नही रही।लेकिन उनकी वाणी और रचनाओं में अवधी, सधुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी दिखाई पड़ती है।जीवनपर्यन्त निरक्षर रहे कबीर दास ने बड़े से बड़े पढ़े लिखो को मात दी। अपने अनपढ़ होने को उन्होंने स्वयं ही प्रकट किया,
मसि कागद छूवो नहीं, क़लम गही नहिं हाथ।