Asatya par samvad lekhan
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सत्य-असत्य का विवेचन
युधिष्ठिर ने पूछा- भरतनन्दन! धर्म मे स्थित रहने की इच्छा वाला मनुष्य कैसा बर्ताव करे? विद्वान! मैं इस बात को जानना चाहता हूँ। भरत श्रेष्ठ! आप मुझसे इसका वर्णन कीजिये। राजन! सत्य और असत्य ये दोनों सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित है; किन्तु धर्म पर विश्वास करने वाला मनुष्य इन दोनों में से किसका आचरण करे। क्या सत्य है और क्या झूठ? तथा कौन सा कार्य सनातन धर्म के अनुकूल है? किस समय सत्य बोलना चाहिये और किस समय झूठ?[1]
भीष्म का युधिष्ठिर को सत्य धर्म के विषय में बताना
भीष्मजी ने कहा- भारत! सत्य बोलना अच्छा है। सत्य से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है; परंतु लोक में जिसे जानना अत्यन्त कठिन है, उसी को मैं बता रहा हूँ। जहाँ झूठ ही सत्य का काम करे (किसी प्राणी को संकट से बचावे) अथवा सत्य ही झूठ बन जाय ( किसी के जीवन को संकट में डाल दे); ऐसे अवसरों पर सत्य नहीं बोलना चाहिये। वहाँ झूठ बोलना ही उचित है। जिसमें सत्य स्थिर न हों, ऐसा मूर्ख मनुष्य ही मारा जाता है। सत्य और असत्य का पालन करने वाला पुरुष ही धर्मज्ञ माना जाता है। जो नीच है, जिसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है तथा जो अत्यन्त कठोर स्वभाव का है, वह मनुष्य भी कभी अंधे पशु को मारने वाले बलाक नामक व्याध की भाँति महान पुण्य प्राप्त कर लेता हैं[2] कैसा आश्चर्य है कि धर्म की इच्छा रखने वाला मूर्ख (तपस्वी) (सत्य बोलकर भी) अधर्म के फल को प्राप्त हो जाता है। (कर्ण पर्व अध्याय) और गंगा के तट पर रहने वाले एक उल्लू की भाँति कोई (हिंसा करके भी) महान् पुण्य प्राप्त कर लेता है। युधिष्ठिर ! तुम्हारा यह पिछला प्रश्न भी ऐसा ही है। इसके अनुसार धर्म के स्वरूप का विवेचन करना या समझना बहुत कठिन है; इसीलिये उसका प्रतिपादन करना भी दुष्कर ही है; अतः धर्म के विषय में कोई किस प्रकार निश्चय करे? प्राणियों के अभ्युदय और कल्याण के लिये ही धर्म का प्रवचन किया गया है; अतः जो इस उद्देश्य से युक्त हो अर्थात् जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस सिद्ध होते हों, वही धर्म है, ऐसा शास्त्रवेत्ताओं का निश्चय हैं।[
युधिष्ठिर ने पूछा- भरतनन्दन! धर्म मे स्थित रहने की इच्छा वाला मनुष्य कैसा बर्ताव करे? विद्वान! मैं इस बात को जानना चाहता हूँ। भरत श्रेष्ठ! आप मुझसे इसका वर्णन कीजिये। राजन! सत्य और असत्य ये दोनों सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित है; किन्तु धर्म पर विश्वास करने वाला मनुष्य इन दोनों में से किसका आचरण करे। क्या सत्य है और क्या झूठ? तथा कौन सा कार्य सनातन धर्म के अनुकूल है? किस समय सत्य बोलना चाहिये और किस समय झूठ?[1]
भीष्म का युधिष्ठिर को सत्य धर्म के विषय में बताना
भीष्मजी ने कहा- भारत! सत्य बोलना अच्छा है। सत्य से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है; परंतु लोक में जिसे जानना अत्यन्त कठिन है, उसी को मैं बता रहा हूँ। जहाँ झूठ ही सत्य का काम करे (किसी प्राणी को संकट से बचावे) अथवा सत्य ही झूठ बन जाय ( किसी के जीवन को संकट में डाल दे); ऐसे अवसरों पर सत्य नहीं बोलना चाहिये। वहाँ झूठ बोलना ही उचित है। जिसमें सत्य स्थिर न हों, ऐसा मूर्ख मनुष्य ही मारा जाता है। सत्य और असत्य का पालन करने वाला पुरुष ही धर्मज्ञ माना जाता है। जो नीच है, जिसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है तथा जो अत्यन्त कठोर स्वभाव का है, वह मनुष्य भी कभी अंधे पशु को मारने वाले बलाक नामक व्याध की भाँति महान पुण्य प्राप्त कर लेता हैं[2] कैसा आश्चर्य है कि धर्म की इच्छा रखने वाला मूर्ख (तपस्वी) (सत्य बोलकर भी) अधर्म के फल को प्राप्त हो जाता है। (कर्ण पर्व अध्याय) और गंगा के तट पर रहने वाले एक उल्लू की भाँति कोई (हिंसा करके भी) महान् पुण्य प्राप्त कर लेता है। युधिष्ठिर ! तुम्हारा यह पिछला प्रश्न भी ऐसा ही है। इसके अनुसार धर्म के स्वरूप का विवेचन करना या समझना बहुत कठिन है; इसीलिये उसका प्रतिपादन करना भी दुष्कर ही है; अतः धर्म के विषय में कोई किस प्रकार निश्चय करे? प्राणियों के अभ्युदय और कल्याण के लिये ही धर्म का प्रवचन किया गया है; अतः जो इस उद्देश्य से युक्त हो अर्थात् जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस सिद्ध होते हों, वही धर्म है, ऐसा शास्त्रवेत्ताओं का निश्चय हैं।[
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