Sociology, asked by arindammukerji4602, 1 year ago

अठारहवीं सदी के यूरोप में कुछ लोगों को क्यों ऐसा लगता था कि मुद्रण संस्कृति से निरंकुशवाद का अंत, और ज्ञानोदय होगा?

Answers

Answered by nikitasingh79
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उत्तर :  

अठारहवीं सदी के यूरोप में कुछ लोगों को ऐसा लगता था कि मुद्रण संस्कृति से निरंकुशवाद का अंत, और ज्ञानोदय होगा । इसके पीछे से लिखित कारण थे :  

(क) अधिक संख्या में पुस्तके छापने से पुस्तके समाज  के सभी वर्गों तक पहुंच गई।  

(ख) पुस्तके सस्ती भी होती गई। अतः अब गरीब लोग भी इन्हें खरीद सकते थे।

(ग) नए-नए विषयों  पर पुस्तके बाजार में आने से लोगों की पुस्तके में रुचि बढ़ती गई । अतः  बहुत से लोग पुस्तकों के नियमित पाठक बन गए । ये सभी बातें ज्ञान के उदय तथा प्रसार की ही सूचक थी।

(घ) पुस्तकों में चर्च तथा राजशाही निरंकुश सत्ता की आलोचना की जाने लगी। अतः बहुत से लोग यह मानने लगे की पुस्तकें समाज को निरंकुशवाद  तथा आतंकी  राजसत्ता से मुक्ति दिला कर ऐसा वातावरण तैयार करेंगे जिसमें विवेक और बुद्धि का राज़ होगा।

आशा है कि यह उत्तर आपकी मदद करेगा।।।।

इस पाठ से संबंधित कुछ और प्रश्न  

छोटी टिप्पणी में इनके बारे में बताएँ-

(क) गुटेन्बर्ग प्रेस  

(ख) छपी किताब को लेकर इरैस्मस के विचार  

(ग) वर्नाक्युलर या देसी प्रेस एक्ट

https://brainly.in/question/9630456

उन्नीसवीं सदी में भारत में मुद्रण-संस्कृति के प्रसार का इनके लिए क्या मतलब था

(क) महिलाएँ  

(ख) गरीब जनता

(ग) सुधारक

https://brainly.in/question/9629925

Answered by Anonymous
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Explanation:

इसके लिए प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द सोशियोलॉजी लेटिन भाषा के सोसस तथा ग्रीक भाषा के लोगस दो शब्दों से मिलकर बना है जिनका अर्थ क्रमशः समाज का विज्ञान है। इस प्रकार सोशियोलॉजी शब्द का अर्थ भी समाज का विज्ञान होता है। परंतु समाज के बारे में समाजशास्त्रियों के भिन्न – भिन्न मत है इसलिए समाजशास्त्र को भी उन्होंने भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया है।

अति प्राचीन काल से समाज शब्द का प्रयोग मनुष्य के समूह विशेष के लिए होता आ रहा है। जैसे भारतीय समाज , ब्राह्मण समाज , वैश्य समाज , जैन समाज , शिक्षित समाज , धनी समाज , आदि। समाज के इस व्यवहारिक पक्ष का अध्यन सभ्यता के लिए विकास के साथ-साथ प्रारंभ हो गया था। हमारे यहां के आदि ग्रंथ वेदों में मनुष्य के सामाजिक जीवन पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।

इनमें पति के पत्नी के प्रति पत्नी के पति के प्रति , माता – पिता के पुत्र के प्रति , पुत्र के माता – पिता के प्रति , गुरु के शिष्य के प्रति , शिष्य के गुरु के प्रति , समाज में एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति के प्रति , राजा का प्रजा के प्रति और प्रजा का राजा के प्रति कर्तव्यों की व्याख्या की गई है।

मनु द्वारा विरचित मनूस्मृति में कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था और उसके महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है और व्यक्ति तथा व्यक्ति , व्यक्ति तथा समाज और व्यक्ति तथा राज्य सभी के एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों को निश्चित किया गया है। भारतीय समाज को व्यवस्थित करने में इसका बड़ा योगदान रहा है इसे भारतीय समाजशास्त्र का आदि ग्रंथ माना जा सकता है।

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