बीती विभावरी जाग री कविता का सारांश अपने शब्दों में लिखिए
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Explanation:
गीत का ध्वन्यार्थ/व्यंजनार्थ:
यह एक छायावादी जागरण गीत है। अर्थ भी इतना साधारण, इतना सीधा और सरल नहीं हो सकता है। यह जागरण गीत क्या केवल किसी सुंदर और अल्हड़ रमणी को जगाने के उद्देश्य से लिखा गया है? संभवतः नहीं। फिर इसका व्यंजनार्थ क्या है?
भारत पर अंग्रेजों का शासन बहुत कुछ हमारी सांस्कृतिक विस्मृति या यों कहें कि हमारी 'आत्मविस्मृति' पर निर्भर था। उन्होंने प्रचारित किया कि हम असभ्य और बर्बर लोग हैं, सभ्यता-संस्कृति नाम की कोई वस्तु हमारे पास नहीं है, इत्यादि। लेकिन उन्हीं गोरों में से बहुत से ऐसे विद्वान थे जिन्हें भारतीय विद्या ने आकर्षित किया और वो उसके अध्ययन में लग गए। इस अध्ययन का परिणाम देखकर वो दंग रह गए। सर विलियम जोन्स पहले व्यक्ति थे जिन्होंने 1786 ई0 में यह बताया कि संस्कृत ग्रीक और लैटिन के समान ही क्लासिक भाषा है तथा तीनों एक ही उत्स से प्रस्फुटित धाराएँ हैं।(6) आगे चलकर मैक्समूलर महोदय ने भी कहाँ कि भारोपीय भाषा के 400-500 मूलभूत 'धातु' विश्व की अनेक भाषाओं के उद्गम स्रोत हैं।(7)
जिस ग्रीक और रोमन संस्कृति की दुहाई पूरा पश्चिम देता आया था, हमारी संस्कृति उसके बराबर खड़ी हो गई थी। पर इन भाषा-वैज्ञानिक खोजों को उतनी गंभीरता से नहीं लिया गया। हमें सभ्यता और संस्कृति से हीन बताया जा रहा था। और विश्व की असभ्य जातियों को सभ्य बनाने का दैवी एवं नैतिक अधिकार अंग्रेजों के पास था। लेकिन सैंधव सभ्यता के प्रकाश में आते ही यह साफ हो गया कि हमारी सभ्यता-संस्कृति इजिप्ट और मेसोपोटामिया की सभ्यताओं से भी कहीं अधिक पुरानी है। अतः कवि जयशंकर प्रसाद कहते हैं- हम जिस आत्मविस्मृति में सोए हुए थे वह जा चुकी है। अब अंधेरा मिट चुका है। हम कौन थे? हमारी संस्कृति क्या थी? इसका भान हमें हो चुका है। विवेकानंद जी ने शिकागो में विश्व भर के सामने हमारी संस्कृति का परिचय दिया। जगदीशचंद्र बसु और रामानुजन जैसे विद्वानों ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भी भारतीय मेधा का लोहा मनवा दिया। रवीन्द्रनाथ के गीतों ने भी समग्र विश्व को हमारा परिचय दिया। लेकिन हम भारतीय स्वयं निष्क्रिय बैठे है! निष्प्रभ सो रहे हैं! अब तो आत्मविस्मृति की स्थिति जा चुकी है। भ्रम का कुहरा छट चुका है। भ्रम कैसा? अपनी हीनता और गोरे प्रभुओं की श्रेष्ठता का। आत्मज्ञान के इस नवप्रभात में आत्मसम्मान की उषा अपने प्रकाश से 'हीनता', 'आत्मग्लानि' तथा 'आत्मविस्मृति' के तारकों को डुबो रही है। हम स्वयं को जान चुके हैं। आत्मज्ञान का नवप्रभात हमारे लिए नई शुरूआत है। क्या हम अब भी चुपचाप बैठे रहेंगे? हीनता और अकर्मण्यता के वशीभूत होकर सोएंगे?
मध्यकालीन विलास-वृतियाँ हम पर अब भी हावी हैं( 'अधरों में राग अमंद पिये....' वाली पंक्ति में सामंतीय विलासिता के संकेत हैं)। यह नव प्रभात है। नव उद्यम और नई रचनाधर्मिता इसकी माँगे हैं। अतः अब हास-विलास का समय नहीं है। आँखों की खुमारी (विहाग- मध्यरात्रि को गाया जाने वाला राग जो यहाँ खुमारी आदि के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त हुआ है।) को दूर करो।
हमारे पूर्वजों ने ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति, तथा धर्म एवं आध्यात्म के क्षेत्र में नाना कीर्तिमान स्थापित किये है। उन्होंने ऐसे-ऐसे कार्य किये जिसके ज़ोर का कुछ भी विश्व में अन्यत्र नहीं है। आज पूरा विश्व इस बात को मानने लगा है। परंतु हम उन्हीं पूर्वजों की संतान होकर उनकी परंपरा को कितना आगे बढ़ा पाएँ हैं? क्या बढ़ाने का प्रयास भी किया है? यदि नहीं तो वह कीर्ति, वह यश, वह महान परंपरा, सब कुछ बेकार है। हम अपने पूर्वजों की उत्कृष्टता से चिपके हुए हैं। नवीन प्रयास नहीं कर रहे हैं। प्राचीन उत्कृष्टता या श्रेष्ठता की स्मृति ही हमें संतुष्ट कर देती है। यह शयन ही तो है (कवि ने प्राचीन उत्कृष्टता से सन्तुष्टि के इस भाव को ही 'विहाग' के रूपक से प्रस्तुत किया है। 'तू अब तक सोई है आली! आँखों मे भरे विहाग री!')। इसलिए प्रसाद कहते हैं कि अब उठो, जागो तथा अपने पूर्वजों की कीर्ति में नवीन शृंखलाएँ जोड़ो।
प्रसाद जी द्वारा रचित उनका यह जागरण गीत लिखा तो गया है स्वतंत्रता पूर्व के भारतीय जन-मानस को ध्यान में रख के किन्तु वर्तमान में भी यह उतना ही महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है। आज या तो हम अपनी मूलभूत आवश्यकताओं ( मज़ेदार बात यह है कि औद्योगीकरण और वैश्वीकरण या सीधे कहे तो मार्केटिंग के इस युग में हमारी मूलभूत आवश्यकताएँ भी काफ़ी बढ़ गई हैं; डीओ से लेकर जिओ तक) के लिए यन्त्रवत काम करते हैं या फिर उस यंत्रवत जीवन से कुछ समय निकाल कर अपनी प्रसन्नता के नाम पर फूँक देते हैं। मतलब नई रचनाधर्मिता कहीं नहीं! लेकिन सवाल जब हमारी अस्मिता पर उठता है तब हम अपने महान पूर्वजों का नाम, उनके द्वारा किये गए महान काम गिनाने लगते हैं। आर्यभट्ट, वराहमिहिर, नागार्जुन अथवा वाल्मीकि, व्यास, कालिदास और भवभूति के नाम क्यों? हम वैसे महान कार्य क्यों नहीं कर रहे हैं? प्रसाद का यह गीत हमसे यही प्रश्न कर रहा है।
संदर्भ सूची-
1. कामायनी- चिंता सर्ग
2.जनमेजय का नागयज्ञ- प्रथम अंक, प्रथम दृश्य(श्रीकृष्ण का कथन)
3. छायावाद की प्रासंगिकता- रमेशचंद्रशाह, वाग्देवी प्रकाशन, पृ.सं- 62
4. यहाँ P.B. Shelley का यह कथन याद आता है-Poets are the hierophants of an unapprehended inspiration; the mirrors of the gigantic shadow which futurity casts upon the present;...
5.छायावाद की प्रासंगिकता- रमेशचंद्रशाह, पृ.सं-27
6. Morphology- Katamba
7.1899- Max Müller's lecture in Oxford