Hindi, asked by Rahulpachauri5314, 11 months ago

Bacho me ghate natik mulya

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Answered by iswar7
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नैतिक मूल्य! एक तरह से भारतीय संस्कृति की पहचान, पुरखों से विरासत में मिली अनमोल धरोहर हैं ये ।
सम्पूर्ण विश्व में भारत की पहचान का प्रतीक "नैतिकता" लेकिन कहते हुए बेहद अफ़सोस होता है, की आज की हमारी नई एवं आधुनिक पीढ़ी, जिससे मैं भी आता हूँ, इस बेशकीमती धरोहर को खोती जा रही है.
युवाओं का रुष्ट और रूखा व्यवहार, बड़ों के प्रति अनादर, कुतर्क, मनमानी यह सब दर्शाता है कि युवाओं में नैतिक मूल्यों का स्तर कस हद तक गिर चुका है ।
और कितनी अजीब बात है, यह सब कुछ दशकों के छोटे से अंतराल में हुआ है ।
आज से कुछ दशक पूर्व, अपने बड़ों का आदर करना, उन्हें उचित प्रेम देना कर्त्तव्य माना जाता था, लोग मिलनसार थे, रिश्तों में गर्माहट थी, लेकिन यह कहते हुए भी लज्जा आती है के जिन बूढ़े माँ- बाप ने पाल पोस कर बड़ा किआ वही माँ- बाप आज बच्चों पर बोझ हैं मोबाइल फ़ोन में युवा इतने ध्यान मग्न हैं की मेल मिलाप के लिए वक़्त ही कहाँ ? और रिश्ते तो आजकल फेसबुक पर बनते हैं तो गर्मजोशी  का कोई सवाल ही नहीं उठता
संवेदनहीनता की हद तो इस बात से आंकी जा सकती है की सड़क पर तड़पते हुए घायल की जान बचाने के बजाय हमारे युवा उसकी दर्दनाक तस्वीर अपने स्मार्ट फ़ोन के कैमरों में कैद करने को ज़्यादा प्राथमिकता देते हैं, ताकि उसे फब पर अपलोड कर सकें और बाकी  के युवक संवेदनशीलता का स्वांग रचाते हुए बड़ी फुर्ती से उस पर लाइक और कमेंट्स करते हैं।
छोटी सी उम्र में ही युवा वह सबकुछ करना चाहते हैं, वह सबकुछ पाना चाहते हैं जो ना ही उनके लिए उचित हैं और ना ही उसका अभी वक़्त आया है।
धूम्रपान , शराब , पैसा, अय्याशी सबकुछ और वह भी शॉर्टकट से.
ऐशो- आराम की महत्वकांशा ऐसी के जब अपने किसी जूनियर या सहपाठी से पूछता हूँ " तुम्हारा सपना क्या है " ? तो हर बार जवाब मिलता है "पैसा" जैसे जीवन में सबकुछ पैसा ही हो, इसके लिए कुछ भी कर गुज़रने की ललक उनके चेहरों पर साफ़ झलकती है।
ना जाने कितने ऐसे उदहारण हैं जो रोज़ अख़बारों में छापते हैं और हमारे आस पास घटित होते हैं, जो दर्शाते हैं के युवा किस हद तक खुद को भुला चुके हैं गिर चुके हैं, और सबसे ज़्यादा तकलीफ तो इस बात की होती है के न तो उन्हें इसकी भनक है और न ही अफ़सोस, मदहोशिओं और मदमस्तीओं में वे चले जा रहे हैं किसी पागल हाथी की तरह अपने रस्ते में आने वाली हर चीज़ को रौंदते कुचलते हुए वे आसमानो में उड़ रहे हैं इस बात से बेखबर के जब ज़मीन पर गिरेंगे तो क्या होगा।
पास ही के एक विद्यालय का उदहारण याद आता है :

उस दिन विद्यालय के सभी सीनियर छात्र "साइकिल रैली " के लिए सुबह एकत्र हुए थे, ज़ाहिर सी बात है वहां शिक्षक भी मौजूद थे, माहौल खुशनुमा था, अचानक विद्यालय का एक पूर्व छात्र अपनी महंगि बाइक से दन- दनता हुआ आता है और आते ही बड़ी दबंगई से कुछ छात्रों से झगड़ा शुरू करता है , और जब वह उपस्थित शिक्षक बीच- बचाव करते हैं तो बड़ी बुलंद आवाज़ में बेहद तुच्छ और निम्न स्तर की गालियाँ जिनका ज़िक्र यहाँ नहीं किआ जा सकता देने के बाद उसके चेहरे पर ऐसे भाव उभरते हैं जैसे ओलिंपिक में स्वर्ण पदक जीता हो।
ना जाने क्या सिद्ध करना चाहता था वह ? और ना जाने क्या प्राप्त हुआ होगा उसे अपने ही शिक्षकों का अपमान करके ? शायद अभिमान हुआ होगा अपनी दबंगई पर !
पर असल में वह इस बात से कितना अनभिज्ञ था की वह "दबंगई" नहीं अपनी अशिष्टता और असभ्यता का प्रदर्शन भरी सबह में कर रहा था।
   कैसी विडम्बना है यह ? जिस भूमि पर "मर्यादा पुरुषोत्तम" श्री राम और अर्जुन जैसे "महान शिष्य" का जन्म हुआ उस ही धरा पर आज हर दूसरे क्षण मर्यादा लांघी जा रही है, आये दिन गुरुओं को अपमानित किआ जाता है, कितना दुर्भाग्यपूर्ण है यह सब .
कहते हैं -
    " असफलता तभी आती है जब हम अपने
       आदर्श, उद्देश्य और सिद्धांत भूल जाते हैं "
और कड़वा सच तो देखिये हमारे आज के युवाओं को तो "आदर्श" ,"उद्देश्य" और "सिद्धांत" का मतलब भी ज्ञात नहीं और उसकी इस ही अनैतिकता के चलते हर रोज़ समाज पतन की नई गहराईयाँ नाप रहा है।
  बड़े ज़ोर-शोर से चहरों तरफ गिरते नैतिक मूल्यों का चर्चा होता है सभाओं में , टेलीविज़न पर, अखबारों में..
बड़े-बड़े विद्वान ,प्रख्यात, प्रकांड पंडित ज्ञान का बघार लगाते हैं, चिंता जताते हैं और घर चले जाते हैं।
वाह ! क्या बात है
आज तक सभी ने विचार ही किया लेकिन इस दिशा में कोई सार्थक कदम नहीं उठाया।
अगर ईमानदारी से सोचें तो पाएंगे की इस महान समस्या को फ़ैलाने वाले कोई और नहीं अपितु हमारे बड़े ही हैं, समाज में गिरती नैतिकता केवल पतन का ही नहीं बल्कि बड़ों की असफलता का भी प्रतीक है, असफलता विश्व की सबसे कीमती धरोहर अपनी नयी पीढ़ी को ना दे पाने की।
   अपने बच्चों को अच्छे संस्कार और शिक्षा देने के बजाय उनके हाथों में लैपटॉप और इंटरनेट थमा दिए, ज़रा बड़े हुए नहीं के महंगे मोबाइल और गाड़ियां दिला दी और समझ लिए के हमने हमारा फ़र्ज़ पूरा कर दिया
   एक बच्चा कोरे कागज़ की तरह होता है और उस कागज़ पर नैतिक मूल्यों और अच्छी आदतों की तहरीर लिखना माता पिता का फ़र्ज़ पर माता-पिता अपनी निजी ज़िन्दगीओं में ही इतने व्यस्त हो गए के ये भूल ही गए क वे किसी के माता पिता भी हैं, अपनी व्यस्तताओं में इस बात का ध्यान ही नहीं रहा क उनके बच्चों की देश की अगली पीढ़ी की असली ज़रुरत क्या हैं?
कल राष्ट्र की कमान युवाओं क हाटों में होगी. क्या संभालेंगे देश को जो खुद ही को नहीं संभल सकते.
गहरी नींद से जागने का वक़्त अब आ चूका है. ज़रूरत है युवाओं पर दोष मढ़ने के बजाय बड़े इस और कुछ सार्थक कदम उठाये ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त अपने बच्चों के साथ युवाओं के साथ व्यतीत करें. उन्हें  उचित मार्गदर्शन दे देश के सांस्कृतिक गौरव से अवगत कराएं और युवाओं को भी आवश्यकता है समझने की अपने आप को और अपने देश को, पाश्चात्य रंगो में रंगने क बजाय अपनी पहचान बनाने के प्रयत्न करने होंगे..
Answered by yahootak
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