Hindi, asked by ayan776, 8 months ago

भारत में घर्म पर भेदभाव पर आपका क्या कहना है कि क्या ये उचित है? ​

Answers

Answered by ujjwalusri
0

आस्था और सत्ता दोअलग-अलग अर्थ रखते हैं। जहांराजनीतिक सत्ता और उसके फलस्वरूपमिलने वाली उपलब्धियां हैं वहां परआस्था नहीं है। इसलिए आस्था औरराजनीतिक क्षेत्र की उपलब्धियां भिन्नहैं। ये दोनों ही अपने-अपने स्थान परशक्ति केन्द्र हैं। भारत में राजनीतिकसत्ता और धार्मिक आस्थाओं में कभीभी संघर्ष नहीं हुआ क्योंकि हमारे यहांउपासना-पद्घतियों या जिसे लोग धर्मकहते हैं उसे कभी भी राजनीतिकस्टेटस नहीं दिया गया। धर्म शब्द कोअंग्रेजी में रिलीजन कहने से ही भ्रमकी स्थिति पैदा हो जाती है। रिलीजनका अर्थ उपासना पद्धति होता है न किधर्म।जहां तक धार्मिक आस्थाओंके प्रतीक व राजसत्ता के बीच टकरावऔर उसे कानून के दायरे में निपटानेकी बात है, तो मेरा मानना है किराज्य के कानून सबके लिए एक जैसे हैंऔर एक ही होने चाहिए। पर दुर्भाग्य सेहमारे देश में कानून सभी के लिए एकजैसे नहीं हैं। देश के विभाजन के बादहमने विशिष्ट परिस्थितियों को ध्यान मेंरखते हुए धर्म के आधार परअल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीचकाफी भेदभाव किया है, जिसका सीधा परिणाम यह है कि तथाकथित अल्पसंख्यक धर्म समूह के अधिकार काफी अलग हैं।

शंकराचार्य जयेन्द्रसरस्वती के साथ जो बर्ताव किया गयाहै या जो कानून उन पर जिस तरह सेलागू किए गए हैं क्या वैसा ही सबकुछ देश के बाकी राजनेताओं याउपासना पद्धतियों के अन्य नेताओं केसाथ कभी होता है? क्या जामा-मस्जिदके इमाम पर कभी किसी ने इस तरहहाथ डालने की कोशिश की है? जबकिकोर्ट ने कई बार उनके नाम नोटिसऔर गिरफ्तारी वारंट भी जारी किए हैं।लेकिन अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुईक्योंकि सत्ता में बैठे लोग इस तरह काकदम उठाने से डरते हैं।

शंकराचार्यके मामले को भी कानून के दायरे मेंरहकर निपटाया जा सकता था। लेकिनइस मामले में यह नहीं किया गया।कानून के नजरिए की बात करें तो ऐसेधार्मिक या उपासना समूहों से संबंधितलोगों को जिन्हें हम धार्मिक नेता याविशेष व्यक्ति कह सकते हैं, चाहे वेकिसी भी समूह से संबंधित हों, उनकेलिए अलग से कानून बनाए जानेचाहिए। ठीक वैसे ही जैसे कि वर्तमानमें संसद के सदस्यों के लिए अलग सेनियम हैं।

अगर कोई यह पूछे किआस्था की सत्ता बड़ी है या राजसत्ता, तोमेरा यह कहना होगा कि यूरोप केइतिहास की पृष्ठभूमि में हम भारत मेंइस प्रकार की तुलना नहीं की सकते।यह दोनों ही जीवन के बिल्कुल भिन्न-भिन्न पक्ष हैं। जहां एक आध्यात्मिकतासे जुड़ा है वहीं दूसरा भौतिकतावादी पक्षरखता है। यूरोपीय समाज में इन दोनोंपक्षों को तुलनात्मक दृष्टिकोण से रखनेके आधार पर ही ईसाईयत का उद्भवहुआ। यीशु ने भी सीजर की सत्ता यानीराजसत्ता और ईश्वर की सत्ता को अलग-अलग माना था। उन्होंने यह कभी नहींकहा कि सीजर की सत्ता कम है याईश्वर की सत्ता बड़ी है। उन्होंने इतना हीकहने की कोशिश की कि सीजर कीसत्ता यानी राजसत्ता की एक मर्यादा है।

भारतीय संदर्भ में देश को सबसेबड़ा या ऊपर माना गया है। 5 हजारवर्षों का हमारा इतिहास गवाह है किहमने राज्य को ही सर्वोच्च माना है।लेकिन उसकी तुलना आस्था की सत्तासे कभी नहीं की। इसलिए कभी भीसंघर्ष की स्थिति नहीं उत्पन्न हुई।फलत: यह भी नहीं कहा जा सकता किधर्म बड़ा या राजसत्ता। दोनों की तुलनाकरना गलत है।

यह सवाल किक्या धार्मिक या आस्था की सत्ता कोस्वायत्त बना देना चाहिए हमारे देश केसंदर्भ में उचित नहीं लगता। ऐसाकरना ठीक नहीं होगा क्योंकि हमारे यहांधर्म को व्यक्तिगत विषय माना गया है।इस्लाम या ईसाईयत की तरह हमारेयहां सामूहिक मुक्ति की अवधारणा नहींहै। हमारे यहां माना जाता है कि प्रत्येकव्यक्ति को अपने कर्मानुसार निर्वाण यामुक्ति के लिए प्रयत्न करने का अधिकारहै। इसीलिए हमारे यहां चर्च जैसेऑर्गनाइज्ड धर्म की अवधारणा नहीं है।इसी वजह से हमारे यहां धर्मसत्ता कोस्वायत्त नहीं बनाया जा सकता। लेकिनयह भी होता है कि धार्मिक नेताओं मेंराजनीतिक लिप्सा जागी है जिसकेकारण ऐसे मामले सामने आते रहते हैंजिनकी वजह से इस क्षेत्र के लोगों कोनीचा देखना पड़ता है।

Similar questions