भारत में लोक सेवा का विकास का वर्णन
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लोक सेवाओं का विकास
लोक सेवाओं का प्रारम्भ प्राचीन काल में राजाओं द्वारा अपने शासन संचालन के लिए कर्मचारी रखने की पद्धति से हुआ था। प्रारम्भ से ही इसका कार्य शासन द्वारा लक्षित कार्यों को पूरा करने से रहा है। लोक सेवाओं का आधुनिक स्वरूप 48वीं शताब्दी के अन्त में सामने आया, जिसमें बढ़ती जनसंख्या, उत्पादन तथा व्यापार, आन्तरिक तथा अन्तराष्ट्रीय युद्ध, औद्योगिक नगरों का विकास, मध्यम वर्ग का बढ़ता सामाजिक महत्व तथा राजतंत्र के पतन ने मुख्य भूमिका अदा की। राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था से लोकतंत्रात्मक व्यवस्था तक की पूरी विकास यात्रा में जैसे-जैसे शासन का स्वरूप बदला गया। राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था में इसकी भूमिका सीधे शासित वर्ग के हितों की पूर्ति तक ही सीमित थी, जनता के हितों की पूर्ति से इसका कोई विशेष प्रयोजन नहीं था, इसलिए लोक उत्तरदायित्व की भावना का प्रायः अभाव ही पाया जाता था। परन्तु आधुनिक शासन व्यवस्था लोगों की इच्छा पर निर्भर करती है इसलिए लोक उत्ततरदायित्व शासन तथा प्रशासन दोनों का ही मुख्य चरित्र होता है।
लोक सेवा जो कि नौकरशाही के द्वारा परिचालित होती है, लोकतंत्र का मुख्य वाहक है। वस्तुत: लोकतंत्र में लोकनीति निर्माण का कार्य विधायिका करती है किन्तु इन नीतियों या कानूनों के क्रियान्वयन का दायित्व सिविल सेवा का होता है। लोकतंत्र में सरकार की सफलता बहुत कुछ सिविल सेवा की क्षमता पर निर्भर करती है क्योंकि एक तरफ यह सरकार का वह चेहरा होता है, जो कि आम जनता के बीच होता है तो दूसरी तरफ जनता की भावनाओं से सरकार को अवगत कराने का उत्तरदायित्व भी सिविल सेवकों का ही होता है क्योंकि ये इनके बीच रहकर कार्य करते हैं।
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