Hindi, asked by malavikamurali2334, 1 year ago

भारत में न्‍यायिक सक्रियता के लाभ तथा दोष पर निबंध। Essay on Judicial Jctivism in India in hindi

Answers

Answered by Stylishhh
3

Answer:

‘न्‍यायिक सक्रियता’ लोकहित, विधि के शासन एवं संविधान की मूल भावना के संरक्षण का एक असामान्‍य, अपरम्‍परागत किंतु प्रभावी सकारात्‍मक यंत्र है। इस प्रकार, यह विधि के साथ न्‍याय करने हेतु आबद्ध न्‍यायपालिका द्वारा अपनी परंपरागत विधिक सीमाओं का ऐसा सतत् अतिलंघन है जो लोकहित के संरक्षण के प्रति निर्दिष्‍ट होने मात्र के आधार पर ही मान्‍य एवं औचित्‍यपूर्ण हो सकता है।

न्‍यायिक सक्रियता के तहत संविधान में दिए (बाध्‍यकारी) प्रावधानों एवं विधायिका द्वारा बनाए गए विधियों के अर्थ के आधार पर निर्णय दिया जाता है। अर्थात् न्‍यायिक सक्रियता ‘विधि की सम्‍यक प्रक्रिया’ से शक्‍ति प्राप्‍त करती है। दूसरी ओर न्‍यायिक समीक्षा के तहत् न्‍यायालय द्वारा कार्यपालिका तथा व्‍यवस्‍थापिका के कार्यों की वैधता की जाँच की जाती है अर्थात न्‍यायालय द्वारा कानूनों एवं प्रशासनिक आदेशों, नीतियों को असंवैधानिक घोषित करना जो संविधान के किसी अनुच्‍छेद का अतिक्रमण करती हो। अत: न्‍यायिक समीक्षा ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ सिद्धांत से शक्‍ति प्राप्‍त करती है।

इससे स्‍पष्‍टहै कि न्‍यायिक सक्रियता के तहत न्‍यायपालिका संविधान में वर्णित प्रावधान से परे जाकर भी निर्देश देने में स्‍वयं को समर्थ कर लेती है। जैसे-अनु. 21 के तहत व्‍यक्‍ति को जीवन जीने का अधिकार है और इसकेतहत यह कहा गया है कि कानूनी प्रावधानों के अनुसार ही किसी न्‍यायालय ने इस अनुच्‍छेद का विस्‍तार कर यह व्‍यवस्‍था कर दी कि शुद्ध पेय जल, शुद्ध वायु, गोपनीयता आदि की सुरक्षा भी इसके तहत ही आती है। न्‍यायिक सक्रियता के तहत न्‍यायपालिका की यही न्‍यायिका सकारात्‍मक है।

Hope it Helps !!!!

Answered by rahularyan720
0

Explanation:

संविधान में शासन के तीनों अंगों-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच काम तथा अधिकारों के विभाजन और परस्पर अनुशासन की व्यवस्था भी सूत्रबद्ध की गयी है, इसलिए दूसरे अनेक पड़ोसी देशों के विपरीत हमारे यहां उनके बीच किसी विस्फोटक टकराव की गुंजाइश काफी कम हैं ।

आखिरकार, खुद सर्वोच्च न्यायालय से भी न्यायिक हस्तक्षेप की अति के खिलाफ आवाज उठी है । देश की सबसे ऊंची अदालत ने न्यायिक सयम बरते जाने की जरूरत पर जोर दिया है । अदालतों को याद दिलाया है कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था में कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका के अधिकारों व शक्तियों का विभाजन रखा गया है, उसका उल्लंघन कर कार्यपालिका तथा विधायिका के क्षेत्र का अतिक्रमण करने से बचा जाना चाहिए ।

हाल ही में दिए एक दूरगामी बहस उठाने वाले फैसले में न्यायमूर्ति ए.के. माथुर तथा मार्कण्डेय काटजू ने अनेक उदाहरण देकर इस बढ़ती प्रवृत्ति की ओर इशारा किया है और शासन के तीनों स्तम्भों यानी कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका की संविधान में निर्देशित बराबरी की रक्षा करने की जरूरत पर जोर दिया है । खुद सर्वोच्च न्यायालय के स्तर पर इन महत्त्वपूर्ण मुद्दों के उठाए जाने के सिलसिले में यह याद दिलाना भी जरूरी है ।

संसद के पिछले एक सत्र में दोनों सदनों में हुई चर्चा में, विधायिका के कार्यक्षेत्र में न्यायपालिका की बढ़ती दखलंदाजी की बार-बार शिकायत की गयी थी । यही नहीं, इस शिकायत के हिस्से के तौर पर न्यायपालिका को पहले खुद अपना घर देखने का उलाहना भी दिया गया और करोड़ों विचाराधीन पडे मामलों की याद दिलायी गयी थी। लेकिन, इसके लिए क्या खुद न्याय प्रणाली को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? कम-से-कम लंबित प्रकरणों की विशाल संख्या के लिए तो हर्गिज नहीं ।

Similar questions