History, asked by prajapatinitesh327, 6 months ago

भारत में समाज और पर्यावरण के परिपेक्ष्य में परंपराये संस्कृति और रीति-रिवाज पर एक लेख
लिखिये।​

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Answered by ridhdhipatel
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भारत में विभिन्न धर्मों के लोगों की अपनी संस्कृति और परंपरा होती है। उनका अपने त्योंहार और मेले होते हैं जिसे वो अपने तरीके से मनाते हैं। लोग विभिन्न भोजन संस्कृति जैसे पोहा, बूंदा, ब्रेड ऑमलेट, केले का चिप्स, आलू का पापड़, मुरमुरे, उपमा, डोसा, इडली, चाईनीज़ आदि का अनुकरण करते हैं।

आज परिधान से लेकर खान-पान, ज्ञान से लेकर सम्मान, उत्पादन से लेकर उपभोग विकास से लेकर विनाश और समझने से लेकर विचारने तक सभी कुछ पश्चिमी तौर-तरीकों से ग्रस्त है। यद्यपि हमें विश्व का सबसे बड़ा तथा श्रेष्ठ लोकतंत्र होने का गौरव प्राप्त है और विश्व के अनेक देशों की संस्कृति हमारे पूर्वजों व विद्वानों के उपदेशों से सिंचित तथा पोषित हुई तथा दुनिया को हमने संस्कृति, सभ्यता की नसीहत दी फिर भी आज दुर्भाग्यवश अपने घर में ही हमारी संस्कृति परापेक्षी तथा विखण्डित होकर रह गयी। आज हम यदि बच्चों से यह कहते हैं कि पेड़ों, नदियों, तालाबों, पहाड़ों, गुफाओं, कन्दराओं, घाटियों के किनारे बैठकर हमारे ऋषियों, तपस्वियों, चिन्तकों, साधु-सन्तों ने ज्ञान अर्जन किया और धार्मिक ग्रन्थों की रचना की तथा देश-विदेशों में भ्रमण करके भारतीय चिन्तकों ने अपनी सभ्यता तथा संस्कृति से विश्व जनसमुदाय को अवगत कराया तो खेद की बात है कि उन्हें विश्वास ही नहीं होता और यह सब उन्हें एक कहानी सी लगने लगती है। यद्यपि दोष उनका नहीं है। इसके लिये दोषी हम हैं, उन्हें परिवेश ही नहीं दिया गया, जहाँ उन्हें नैतिक शिक्षा से परिचित कराया जाता।

संस्कृति तथा विज्ञान का आपस में अविच्छेद सम्बन्ध है अर्थात यह एक दूसरे के पूरक हैं। यदि संस्कृति मानव के हृदय को परिष्कार, परोपकार, समाज सेवा, सहयोग सहानुभूति प्रदान करती है, तो विज्ञान मानव को बाह्य रूप से मजबूती प्रदान करता है। संस्कृति की सफलता देश के लोगों की निपुणता, नेतृत्व, संयम, उत्कण्ठा तथा इसे सामाजिक हितों के अनुकूल बनाने पर निर्भर करती है। जिस जनसमुदाय में अपने देश की समस्याओं को सुलझाने की प्रबल इच्छा हो और वे उदासीन तथा अदृष्ट न हो, बल्कि स्वतः सामुदायिक कार्यकलाप में अभिक्रम करने की श्रेष्ठ तथा क्रियाशील क्षमता रखते हों, तो उस देश अथवा स्थान की संस्कृति मानवतावादी, सृजनात्मक, परार्थवादी अवश्य होगी।

भारतीय संस्कृति पर्यावरण-संरक्षण में महत्त्वपूर्ण तथा सकारात्मक भूमिका रखती है। मानव तथा प्रकृति के बीच अटूट रिश्ता कायम किया गया है। जो पूर्णतः वैज्ञानिक तथा संतुलित है। हमारे शास्त्रों में पेड़, पौधों, पुष्पों, पहाड़, झरने, पशु-पक्षियों, जंगली-जानवरों, नदियाँ, सरोवन, वन, मिट्टी, घाटियों यहाँ तक कि पत्थर भी पूज्य हैं और उनके प्रति स्नेह तथा सम्मान की बात बतलायी गयी है। बुद्धिजीवियों का यह चिन्तन पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये सार्थक तथा संरक्षण के लिये बहुमूल्य हैं।

आज समाज का एक प्रबुद्ध वर्ग यह मानकर चलता है कि हम उस संस्कृति में विश्वास नहीं रखते जो दकियानूसी या फिर देवी-देवताओं वाले धर्म को मानती है अर्थात उनका इसके पीछे यह तर्क है कि वे आस्तिकता पर कतई ध्यान नहीं देते तथा भौतिक समृद्धि को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं, वे ऐसी संस्कृति में लौटना नहीं चाहते जो उपरोक्त सजीव तथा निर्जीव तत्वों को किसी न किसी रूप में पूजती और स्वीकार करती है। मेरा सवाल यह है कि प्रत्येक मनुष्य, समुदाय, वर्ग अपना रास्ता चुनने तथा संस्कृति को मानने के लिये स्वतंत्र हैं वह किसी भी चीज को सर्वोपरि ठहरा सकता है। मनुष्य नास्तिक हो या आस्तिक, धार्मिक हो या अधार्मिक क्या फरक पड़ता है? लेकिन पर्यावरण हमारे चारों ओर है। हवा, भोजन, पेड़-पौधे, पानी, जीव-जन्तु का महत्व जितना आस्तिक के लिये है, उतना ही नास्तिक के लिये भी है। प्राकृतिक विपदायें आने से पहले यह नहीं पूछती हैं कि कौन आस्तिक है और कौन नास्तिक। जब प्रदूषण की आँधी आती है, वह सब अपने में समेटकर ले जाती है। कहने का अभिप्राय है कि पर्यावरण का संरक्षण करना हमारा नैतिक दायित्व है क्योंकि संरक्षण करना अपने आपको जीवन देना है। पर्यावरण की कोई भौगोलिक तथा राजनैतिक सीमा नहीं होती है। यह विश्व-व्यापी है इसके साथ किया गया प्रतिशोध मनुपुत्रों को हमेशा-हमेशा के लिये काल के गाल में धकेल देगा।

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