भारतीय समाज में नारी पर निबंध
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धीरे धीरे समय के पटाक्षेप के कारण नारी की दशा में कुछ अपूर्व परिवर्तन हुए। वह अब नर से महत्वपूर्ण न होकर उसके समकक्ष श्रेणी में आ गई। अगर पुरूष ने परिवार के भरण पोषण का उत्तरदायित्व सम्भाल लिया तो घर के अन्दर के सभी कार्यों का बोझ नारी ने उठाना शुरू कर दिया। इस प्रकार नर और नारी के कार्यों में काफी अन्तर आ गया। ऐसा होने पर भी प्राचीन काल की नारी ने हीन भावना का परित्याग कर स्वतंत्र और आत्मविश्वास होकर अपने व्यक्तित्व का सुन्दर और आकर्षक निर्माण किया। पंडित मिश्रा की पत्नी द्वारा शंकराचार्य जी के परास्त होने के साथ गार्गी, मैत्रेयी, विद्योत्तमा आदि विदुषियों का नाम इसी श्रेणी में उल्लेखनीय है।
समय के बदलाव के साथ नारी दशा में अब बहुत परिवर्तन आ गया है। यों तो नारी को प्राचीनकाल से अब तक भार्या के रूप में रही है। इसके लिए उसे गृहस्थी के मुख्य कार्यों में विवश किया गया, जैसे- भोजन बनाना, बाल बच्चों की देखभाल करना, पति की सेवा करना। पति की हर भूख को शान्त करने के लिए विवश होती हुई अमानवता का शिकार बनकर क्रय विक्रय की वस्तु भी बन जाना भी अब नारी जीवन का एक विशेष अंग बन गया।
शिक्षा के प्रचार प्रसार के फलस्वरूप अब नारी की वह दुर्दशा नहीं है, जो कुछ अंधविश्वासों, रूढि़वादी विचारधारा या अज्ञानता के फलस्वरूप हो गयी थीं। नारी को नर के समानान्तर लाने के लिए समाज चिन्तकों ने इस दिशा में सोचना और कार्य करना आरंभ कर दिया है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने इस विषय में स्पष्टता ही कहा है-
‘एक नहीं, दो दो मात्राएँ, नर से बढ़कर नारी।’
नारी के प्रति अब श्रद्धा और विश्वास की पूरी भावना व्यक्त की जाने लगी है। कविवर जयशंकर प्रसाद ने अपनी महाकाव्यकृति कामायनी में लिखा है-
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
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