भाव स्पष्ट कीजिए-
जपमाला, छापैं, तिलक सरै न एकौ कामु।
मन-काँचै नाचै बृथा, साँचै राँचै रामु।।
bhaav spaṣṭ keejie-
japamaalaa, chhaapain, tilak sarai n ekau kaamu. Man-kaanchai naachai brithaa, saanchai raanchai raamu..
दोहे
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आडम्बर और ढ़ोंग किसी काम के नहीं होते हैं। मन तो काँच की तरह क्षण भंगुर होता है जो व्यर्थ में ही नाचता रहता है। माला जपने से, माथे पर तिलक लगाने से या हजार बार राम राम लिखने से कुछ नहीं होता है। इन सबके बदले यदि सच्चे मन से प्रभु की आराधना की जाए तो वह ज्यादा सार्थक होता है।
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बिहारी का मानना है कि माला जपने और छापा-तिलक लगाने जैसे बाहरी आडम्बरों से ईश्वर प्राप्त नहीं होते। ये सारे काम व्यर्थ हैं। राम यानी ईश्वर का वास उस व्यक्ति के मन में होता है जिसका हृदय हृदय ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, वासना आदि से मुक्त और स्वच्छ होता है|
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