Bharat की भाषा-नीति का आलोचनात्मक मूल्यांद
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किसी भी स्वाधीन सार्वभौम देश अथवा राष्ट्र का अपना एक व्यक्तित्व होता है। इसी व्यक्तित्व के आधार पर उसका विश्व समाज में स्थान होता है और उसकी भूमिका होती है। यही व्यक्तित्व देश के गौरव का भी आधार होता है। किसी भी देश का व्यक्तित्व उसकी संस्कृति, वेशभूषा, भाषा, कार्यकलाप अथवा आर्थिक विकास पर निर्भर होता है। हमारा देश एक विशाल देश है। इसके एक छोर से दूसरे छोर तक अनेक भिन्नताएँ हैं- संस्कृति में, वेशभूषा में, भाषा में तथा अन्य क्षेत्रों में। परंतु इन भिन्नताओं के होते हुए भी एक स्पष्ट एकता है, जिसके आधार पर हम विश्व समाज में अपना स्थान ग्रहण करते हैं। हमारा राष्ट्रीय व्यक्तित्व इसी एकता के आधार पर उभरता है और इसीलिए राष्ट्रीय व्यक्तित्व का विशेष महत्त्व है। इसी दृष्टिकोण से राष्ट्रीय स्तर पर एक अपनी भाषा की आवश्यकता है।
इस प्रसंग में भी हिन्दी को राजभाषा बनाए जाने के संबंध में भारत के विभिन्न राज्यों के मनीषियों द्वारा किये गए प्रयासों का उल्लेख करना चाहूँगा, क्योंकि इस बात का महत्त्व तब तक हृदयंगम नहीं किया जा सकता, जब तक इस दिशा में किए गए अनवरत परिश्रम, उद्योग और निष्ठा पर विचार न किया जाए। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों से ही भारत के राष्ट्रीय नेताओं और कर्णधारों ने यह अनुभव कर लिया था कि स्वतंत्रता प्राप्ति का तब तक कोई महत्त्व नहीं होगा, जब तक देश की अपनी कोई भाषा राष्ट्रभाषा न हो। प्रश्न यह था कि इस विशाल देश में जहाँ अनेक समृद्ध और प्राचीन भाषाएँ प्रचलित हों, वहाँ किस भाषा को राष्ट्रभाषा या राजभाषा का दर्जा दिया जाये। ऊपर से यह समस्या भले ही जटिल मालूम होती हो, किंतु सारे भारतवर्ष को एक सूत्र में पिरोने की कामना करने वाले और भारतीय स्तर पर समस्याओं का समाधान खोजने वाले सभी राष्ट्र नेता, चाहे वे किसी भी प्रदेश अथवा क्षेत्र के रहे हों, हृदय से इस तथ्य को स्वीकार करते थे कि हिन्दी ही ऐसी भाषा है, जिसे देश की राष्ट्रभाषा अथवा राजभाषा का गौरव प्रदान किया जा सकता है। भारत में अनेक प्राचीन भाषाएँ हैं। हर एक अपने आप में बहुत समृद्ध और देश का गौरव है। परंतु हिन्दी एक ऐसी भाषा है, जिसका देश के अधिकांश भागों में प्रचलन है। हिन्दी भाषी क्षेत्र तथा इसके निकटवर्ती भागों में तो इसका प्रयोग आसानी से किया ही जाता है, पर इसके अतिरिक्त अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में भी यह भाषा आसानी से समझी और बोली जा सकती है। हिन्दी की इस व्यापकता और सरलता को देखते हुए सभी मनीषियों का ध्यान इसी की ओर आकृष्ट होता रहा और इसे राजभाषा बनाए जाने के लिए विचार व्यक्त किये जाते रहे।
इस सदी के दूसरे दशक में मराठी साहित्य परिषद ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया था और लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, डाक्टर भंडारकर, राय बहादुर चिंतामणि विधायक वैद्य आदि मराठी चिंतकों ने हिन्दी को प्रबल समर्थन प्रदान किया था। हिन्दी की व्यापकता तथा लोकप्रियता को देखते हुए महर्षि दयानंद सरस्वती ने 'सत्यार्थ प्रकाश' को हिन्दी में ही लिखा तथा अपने भाषण भी वे हिन्दी में ही दिया करते थे। हिन्दी के क्षेत्र में बापू का अंशदान तो सर्वविदित ही है। 'दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा' गांधी जी के हिन्दी प्रेम और विश्वास का जीवंत उदाहरण है। इसके गठन के लिए उन्होंने अपने पुत्र श्री देवदास गांधी को मद्रास भेजा था। बंगाल के मनीषियों ने हिन्दी के सर्वव्यापक तथा देशव्यापी स्वरूप को परखा और समझा था। राजा राममोहन राय ने 1826 में प्रकाशित 'बंगदूत' में हिन्दी को स्थान दिया था। इसी प्रकार आचार्य केशवचंद्र सेन, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, जस्टिस शारदाचरण मित्र, सर गुरुदास चटर्जी, श्री रमेश चंद्र दत्त आदि प्रमुख चिंतकों ने हिन्दी के सर्वव्यापी स्वरूप को पहचान कर उसकी हिमायत की थी।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश की स्वतंत्रता और उत्थान के लिए जहाँ अनेक रचनात्मक कार्यक्रम प्रारंभ किए वहीं उन्होंने हिन्दी के प्रचार-प्रसार और प्रयोग को भी अपने रचनात्मक कार्यक्रमों का अंग बनाया। इसके लिए उन्होंने तत्कालीन हिन्दी की संस्थाओं को सबल और सुदृढ़ बनाने का कार्य तो किया ही, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा जैसी संस्थाओं की भी स्थापना कराई और इनके माध्यम से अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में व्यापक रूप से हिन्दी के प्रचार का अभियान चलाया। उन्होंने देश में अनेक हिन्दी प्रचारक तैयार किये और उन्हें यह मंत्र दिया कि वे राष्ट्र की एकता और समृद्धि के लिए हिन्दी के शिक्षण, प्रचार और प्रसार का कार्य देश सेवा का कार्य समझ कर करें।
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