bura jo dekhan main chala paragraph in hindi fast please
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बुरा जो देखन मैं चला,
बुरा ना मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपनो,
मुझसे बुरा ना कोय,
अर्थ,, : जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला. जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है.
बुरा ना मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपनो,
मुझसे बुरा ना कोय,
अर्थ,, : जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला. जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है.
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संत कबीर ने कहा है: बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलया कोय। जो मन खोजा आपना , मुझसे बुरा न कोय।। इस दोहे में बुरा देखने चलने और फिर अपने मन के भीतर देखने का क्या मतलब है ? कबीर का आशय आत्मविश्लेषण से है। आज तक जितने भी संत-महात्मा और महापुरुष हुए हैं , वे सभी आत्मविश्लेषण के पक्षधर रहे हैं। अपने को देखे बिना जग को नहीं देखा जा सकता। आत्मविश्लेषण से ही आदमी निरंतर महानता की ओर अग्रसर होता है। लेकिन इस आत्मविश्लेषण की जरूरत क्यों पड़ती है ? हमारे जीवन में कई कार्य अनायास ही हो जाते हैं और कुछ के लिए हमें प्रयास करना पड़ता है। हमारे स्वभाव में जो चीजें शामिल हो जाती हैं , वे अनायास ही होती रहती हैं , उनके लिए हमें प्रयास नहीं करना पड़ता। ये चीजें सकारात्मक भी हो सकती हैं और नकारात्मक भी। उदाहरण के लिए हम सांस लेते हैं। सांस लेना हमारे जीवन के लिए एक आवश्यक क्रिया है , इसके लिए हमें प्रयास नहीं करना पड़ता। इसी प्रकार पलकें भी हम अनायास ही झपकाते रहते हैं , इसके लिए भी प्रयास की जरूरत नहीं पड़ती। यह सब जीवन की नैसर्गिक और आवश्यक क्रियाएं हैं , इनके लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। लेकिन कुछ और क्रियाएं भी ऐसी हैं , जो न तो नैसर्गिक हैं और न ही आवश्यक , पर उनके लिए भी प्रयास नहीं करना पड़ता। जैसे कुछ लोग आदतन गाली-गलौच करते हैं। वे कोई अच्छी बात कहें , उसमें भी अनायास ही अपशब्द आ जाते हैं , उन्हें पता भी नहीं चलता। बिल्कुल निर्दोष भाव से वे ऐसे नकारात्मक कार्य करते हैं। लेकिन दूसरे उनकी ऐसी विकृतियों को महसूस करते हैं। उपर्युक्त विकृतियों का कारण संबंधित प्रवृत्तियों का उनकी वाणी व स्वभाव में समावेश है। ऐसी नकारात्मक प्रवृत्तियां किसी के भी हित में नहीं होतीं। इन्हें पैदा करने के लिए तो कोई प्रयास नहीं करना पड़ता , अनायास ही ये उत्पन्न हो जाती हैं और हमारे स्वभाव में सम्मिलित हो जाती हैं , परंतु इनसे छुटकारा पाने के लिए अवश्य ही प्रयास करना पड़ता है। कुछ प्रवृत्तियां ऐसी भी होती हैं जो हमारे स्वभाव में शामिल नहीं होतीं , लेकिन जब वे दैनिक जीवन का अंग हो जाती हैं तो स्वभाव में शामिल हो जाती हैं। जैसे कुछ व्यक्ति प्रात: की सैर शुरू करते हैं और फिर उसका नियम बना लेते हैं। नियम बनाने के कुछ दिनों तक उनका पालन करने के लिए प्रयास करना पड़ता है और उसे निरंतर करना पड़ता है। जब कुछ समय व्यतीत हो जाता है तो फिर ऐसे नियम हमारे स्वभाव के अंग हो जाते हैं। प्रात: की सैर , व्यायाम , सत्संग , पूजा-ध्यान , ये सब जब नियमित जीवन के अंग हो जाते हैं , फिर उनके लिए प्रयास नहीं करना पड़ता। स्वभाव बन गया तो बन गया , वह फिर बदल पाना मुश्किल होता है। स्वभाव जैसे-जैसे पुराना होता जाता है , उसकी नींव उतनी ही गहरी होती जाती है और उसे बदलने के लिए अधिक संकल्प शक्ति की जरूरत होती है। प्रवृत्ति यदि सकारात्मक है तो उसे बदलने की जरूरत नहीं है। लेकिन नकारात्मक वृत्तियों को अवश्य बदल देना चाहिए। यह बदलाव जितनी जल्दी हो जाए , उतना ही बेहतर है। जैसे अपशब्दों का प्रयोग यदि स्वभाव में शामिल हो गया है , तो उसे यदि बचपन में ही बदल दिया जाए तो आसान है। जैसे-जैसे आयु बढ़ेगी , उसकी नींव गहरी होती जाएगी। उस अवस्था में उसे बदलने के लिए उतनी ही ज्यादा संकल्प शक्ति की जरूरत पड़ेगी। आयु बढ़ने के साथ-साथ संकल्प शक्ति कमजोर होती जाती है। इस तथ्य पर गौर किए जाने की आवश्यकता है कि जिन प्रवृत्तियों को हम अन्य लोगों के लिए हानिकारक मानते हैं , उन प्रवृत्तियों के शिकार कहीं हम खुद तो नहीं हैं। इंसान प्राय: दूसरों की कमियों को तो एकदम पकड़ लेता है , जबकि स्वयं अपनी कमियों को अनदेखा कर देता है। यह तब है जबकि दूसरे की कमियों का हमारे जीवन पर उतना व्यापक असर नहीं पड़ता जितना कि स्वयं हमारी कमियों का पड़ता है। इसीलिए अपनी वास्तविकता से रू-ब-रू होते रहना चाहिए। आत्मनिरीक्षण , आत्ममंथन अथवा आत्मविश्लेषण की प्रवृत्ति बनी रहनी चाहिए। यह प्रवृत्ति यदि हमारे दैनिक जीवन का अंग बन जाए तो धीरे-धीरे यह हमारे स्वभाव में सम्मिलित हो जाएगी।.
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