चोल कालीन कांस्य प्रतिमाओं को सर्वाधिक परिष्कृत क्यों माना जाता है?
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चोल कालीन कांस्य प्रतिमाओं को सर्वाधिक परिष्कृत
नोवीं तथा बारहवीं शताब्दी के बीच चोल साम्राज्य में कला लो प्रोत्साहन मिला| चोल कला द्रविड़ शैली पर आधारित थी| चोल कालीन कांस्य प्रतिमाओं को सर्वाधिक परिष्कृत माना जाता है|
इसका मुख्य उदाहरण तंजौर स्थित नटराज शिव को कांस्य मूर्ति है|
दसवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच तमिलनाडू में चोल वंश के शासन कल में कुछ अत्यंत सुन्दर एवं उत्कृष्ट स्तर की कांस्य प्रतिमाएं बनाई गई| कांस्य प्रतिमाएं बनाने को उत्तम तकनीक और कला आज भी दक्षिण भारत विशेष रूप में नृत्य करते हुए शिव की सुप्रसिद्ध प्रतिमा का विकास चोल शासक में पूर्ण रूप से ही चूका था| पार्वती रुकंद में कार्तिकेय और गणेश आदि |देवताओं की कांस्य की मूर्तियाँ भी निर्मित की गई | चोल स्थापत्य को प्रशंसा करते हुए फर्गुसन ने कहा था की चोल कालीन कारीगर राक्षस की तरह सोचते थे और जोहरी की तरह तराशते थे |
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भारतीय कला का परिचय कक्षा -11
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Explanation:
भारत में पत्थर और धातु से मूर्तियाँ बनाने की कला साथ-साथ चलती रही।
इस प्रश्न में मेरी राय इस प्रकार है, भारतीय मूर्ति कारों में पत्थर की मूर्तियाँ बनाने के साथ धातु और मिश्रधातु बनाने की प्रक्रिया की भी खोज कर ली थी |
दोनों प्रक्रियाओं के बीच समानताएँ:
दोनों ही प्रक्रियाओं में मानव आकृतियाँ बनाने को महत्व दिया गया है|
दोनों प्रकार की मूर्तियाँ हिन्दू , बोद्ध ,और जैन धर्म को समर्पित है|
इन मूर्तियों का उपयोग देवी-देवताओं के कल्पित रूपों को दर्शाने और धर्मों की शिक्षा देने के लिए किया जाता है|
इन में हिन्दू के देवी-देवताओं के बहुत से सिर और भुजाएँ दिखाई गई है|
यह मूर्तियाँ गांन्धार , मथुरा , अमरावती मौर्य सिंधु वाकारक, चोल आदि शैली थी|
दोनों प्रक्रियाओं के बीच अंतर :
पत्थर की मूर्तियाँ :
यह मूर्तियाँ पत्थरों को तराश कर बनाई जाती है| या पत्थरों पर आकृतियाँ उकेरी जाती है|
इनका मुख्य उपयोग स्मृति और स्मारक चिन्ह बनाने के लिए किया जाता है|
यह धातु की अपेक्षा कम आकर्षक और चमकदार होती है|
धातु की मूर्तियाँ :
इस प्रक्रिया में लुप्त मोम से प्रतिरूप बनाया जाता है| फिर उसे धातु को पिघला कर उढेला जाता है|
इन का उपयोग ज्यादातर सजावट के लिए किया जाता है|
यह मूर्तियाँ बहुत सुन्दर आकर्षक और चमकदार नहीं होती है|
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