Social Sciences, asked by Anonymous, 1 year ago

चिंतन के उनको kuchek स्त्रोतों की चर्चा कीजिए जिनके आधार पर आजादी के फौरन बाद विकास के लिए कार्य नीति निर्धारित की गई

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Answered by Aaaayush
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Hey dear19वीं तथा 20वीं सदी के प्रारम्भ में दिये गये विचारों को आधार बनाया. लेकिन इसके लिये इस अवधि की सभी रचनाओं को सिलसिलेवार न पढ़कर उन भावों, बिम्बों और प्रवृत्तियों को पिरोने की कोशिश की गई है जो परस्पर संबद्ध हैं. इससे संभवत: हमें अपनी संस्कृति और राजनीति की अवधारणाओं को परिष्कृत करने का अवसर मिलेगा. इसके लिये भारतीय संस्कृति और राजनीतिक व्यवहार की समस्याओं और प्रवृत्तियों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना पड़ेगा. चूंकि ज्यादातर विद्वान एक से ज्यादा समस्या या प्रवृत्ति को तरजीह नहीं देते, इसलिये आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन के एक से ज्यादा प्रकार होने की मान्यता का नितान्त अभाव हैl

हमारे ‘आधुनिकता’ का फ्रेमवर्क दो कारणों से विवादित रहा है. एक, आधुनिकता की अवधारणा का जटिल और विवादास्पद इतिहास है, दो, विभिन्न सन्दर्भों और मान्यताओं के आधार पर ‘आधुनिकता’ को परिभाषित करने की कोशिश की जाती रही है. आधुनिकता की कभी स्पष्ट समझ नहीं रही क्योंकि यह कोई एकल नहीं वरन विभिन्नताओं के संश्लेषण पर आधारित अवधारणा है. यदी अट्ठारहवीं शताब्दी से बीसवीं शताब्दी के मध्य तक के समय को आधुनिक – काल जीवन की सामाजिक परिस्थितियों को ‘आधुनिकता’ की संज्ञा दी जा सकती हैं, तथा उसके सांस्कृतिक घटक को ‘आधुनिकता’ कहा जा सकता है. बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में पेरिस को हम ‘आधुनिक’ और ‘आधुनिकता’ का केंद्र कह सकते हैं, पर बीसवीं शताब्दी के अन्त में ‘धर्म और राजनीति में कट्टरवाद’ तथा ‘दर्शन और कला में उत्तर – आधुनिकता’ के अभ्युदय ने उनकी उपलब्धियों को चुनौती देना शुरू कर दिया. इसके कारण आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन में ‘आधुनिक’ के निर्धारण का काम और कठिन हो गया है.
‘आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन’ को संभवत:  चार बार पुनर्परिभाषित करने का प्रयास किया गया है. प्रथम, जब उन्नीसवीं शताब्दी में आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन ने पुनर्जागरण का आलिंगन किया, तथा राजा राममोहन राय, ज्योतिराव फुले एवं ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे सुधारकों ने विवेक के आधार पर कुरीतियों एवं परम्पराओं के प्रभाव से संघर्ष का सिंघनाद किया. इस बिन्दु पर भारतीय राजनीतिक चिन्तन में बौद्धिकता, विज्ञान, समानता और मानव अधिकार जैसी अवधारणाओं का वर्चस्व हो गया, अवधारणायें जो यूरोपीय पुनर्जागरण से जन्मी थी. इसके लिये साम्राज्यवादी राज्यों द्वारा कानून बना कर हस्तक्षेप किया गया. द्वितीय बिन्दु उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आया जब राष्ट्रवाद पर विमर्श और राजनीति का प्रादुर्भाव हुआ. इसने ‘आधुनिकता’ के लिये साम्राज्यवादी राज्य के विधिक सुधारवादी हस्तक्षेप पर इस आधार पर आपत्ति की कि इससे किसी ‘राष्ट्र’ की अपनी सामाजिक समस्याओं के (विशेषत:  सांस्कृतिक क्षेत्र में) समाधान करने की क्षमता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है. टैगोर ने 1916 में टोक्यो में अपने सार्वजनिक भाषण में कहा था – ‘मन की स्वतन्त्रता, न कि समरूप चिन्तन की दासता ही सच्ची आधुनिकता है. यह किसी यूरोपीय स्कूल मास्टर के निर्देशन में न होकर स्वतन्त्र रूप से कार्य व चिन्तन की स्थिति है. आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन का तृतीय पड़ाव तब दिखाई देता है जब राष्ट्रवाद पर विमर्श और राजनीति के परिप्रेक्ष्य में आधुनिकता को परिभाषित करने की कोशिश की गई. इस बिन्दु पर विचारणीय है कि क्या ’भारतीय-आधुनिक’ स्वंय अपने कुछ ‘मानक’ स्थापित कर सकता है ? पर यह नहीं भूलना चाहिये कि राष्ट्रीयता के आधार पर ‘आधुनिक’ को परिभाषित करने में अनेक जटिलतायें हैं. संभवत: ‘अपूर्ण-आधुनिकता’ उसमें एक बड़ा अवरोध है. चौथे पड़ाव में ‘आधुनिक’ की सभी किस्में समाहित हैं. इस प्रकार, आज भारत में ‘आधुनिक’ कोई एक समरूप विचार नहीं है, वरन् विविधताओं का एक पुंज है. इस कारण इसे किसी सिद्धान्त से जोड़ना कठिन है. फिर भी आवश्यकता इस बात की है कि पाश्चात्य अवधारणा और भारतीय राष्ट्रवाद के मध्य सन्तुलन स्थापित करते हुये ‘आधुनिक’ भारतीय राजनीतिक चिन्तन को परिभाषित किया जाय.

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