Chunav kyu Jaroori hai
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एक साथ चुनाव कराए जाने का विचार ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के नारे के साथ गड्डमड्ड हो रहा है। हालांकि ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की अवधारणा को विचार के कई ध्रुवों की चुनौती भी मिल रही है। 1967 के बाद से भारत हर साल पांच से छह चुनावों का गवाह रहा है। चुनावों के कारण आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है और उसकी वजह से कम से कम 45 दिनों तक सरकारी कामकाज रुक जाते हैं। मसलन, कर्नाटक चुनावों की अधिसूचना 27 मार्च को जारी की गई थी और वहां आदर्श आचार संहिता 15 मई तक प्रभावी रहेगी। 2018 में चुनावों के तीन धारावाहिक तय हैं- फरवरी, मई और नवंबर में। यानी शासन का कामकाज सालाना तकरीबन सौ दिनों तक प्रभावित होता है।
सिर्फ लोकसभा और विधानसभा के चुनावों की बात ही नहीं है। यहां तक कि स्थानीय निकाय के चुनावों तक में आदर्श आचार संहिता लागू किए जाने का क्या मतलब है? उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में नगर निगमों के मेयर से लेकर 190 नगर पालिका परिषदों और चार सौ से अधिक नगर पंचायतों के चुनाव होते हैं और फिर जिला, ब्लाॅक और पंचायती चुनाव होते हैं, जिनमें तकरीबन 59,000 गांवों के मतदाता 8.5 लाख प्रतिनिधि चुनते हैं।
एक साथ चुनाव कराए जाने की मांग एनडीए की सत्ता के समय ही जोर मारती है। यह विचार सबसे पहले 1999 में विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट में दर्ज किया गया था। रिपोर्ट के साथ ही हर साल का चुनावी चक्र और लोकसभा तथा विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाने का विचार ठंडा पड़ गया। इस विचार में फिर 2003 में पूर्व उप राष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत ने यह कहते जान फूंक दी कि 'बार-बार होने वाले चुनावों के कारण शासन प्रभावित हो रहा है।' ऐसा लगा मानो लोकतंत्र के लिए होने वाले चुनावों ने लोकतंत्र को चुनावों तक सीमित कर दिया।
यह मुद्दा एक बार फिर उठा जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे अपनी बैठकों और अपने रेडियो प्रसारण में उठाया। इस विचार को नीति आयोग के जनवरी, 2017 में लिखे गए एक पर्चे से व्यापकता मिली, जिसे प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएमईएसी) के अध्यक्ष तथा नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबराय और किशोर देसाई ने तैयार किया था। नीति आयोग शासन परिषद की अप्रैल में हुई एक बैठक में उन्होंने कहा, केंद्र और राज्य विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाने पर एक सकारात्मक विमर्श शुरू हुआ है।
विपक्षी पार्टियों ने इसकी आलोचना करते हुए इसका विरोध किया है। आलोचना का एक आधार आईडीएफ इंस्टीट्यूट का एक सर्वे है, जिसमें कहा गया है कि यदि केंद्र और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं, तो 77 फीसदी मतदाताओं ने एक ही पार्टी को वोट देने का रुझान दिखाया है।
हाल ही में विधि आयोग ने एक साथ चुनाव कराए जाने से संबंधित मसौदा प्रस्तुत किया है और इसमें दिए गए अनेक सुझाव समस्या खड़ी कर सकते हैं। पिछले हफ्ते देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश एम एन वेंकटचलैया, जिन्होंने 2000 में संविधान की समीक्षा करने वाली समिति की अध्यक्षता की थी, कहा कि एक साथ चुनाव से स्थानीय मुद्दे गौण हो जाएंगे। वास्तव में यह राम मनोहर लोहिया थे, जिन्होंने लोकतंत्र की निर्बाध जरूरत बताते हुए कहा था, जिंदा कौम पांच साल इंतजार नहीं करती!
हर साल की चुनावी परेड को खत्म करने की मांग शासन के संदर्भ में राजनीतिक है और चुनावों पर होने वाले खर्च के लिहाज से आर्थिक। ऐसी चाहत व्यापक रूप से महसूस की जा सकने वाली इस धारणा से उपजती है कि नीति निर्धारण तथा प्रशासन का अंतर्संबंध राजनीति से है। आलोचक यह मानते हैं कि मौजूदा व्यवस्था में सकारात्मकता है।
जस्टिस वेंकटचलैया ने यह महसूस किया कि मुद्दों पर आधारित सक्षम लोकतांत्रिक तथा उचित अभिव्यक्ति ही मायने रखती है। यह सिद्धांत हाल ही में पैदा हुआ। मसलन, जीएसटी की व्यवस्था में बदलाव वोट की चिंता से ही उपजा है। यह भी उतना ही सच है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव ने भाजपा को यह दावा करने का अवसर दिया कि गरीब लोगों ने भी नोटबंदी का समर्थन किया था। यानी कहानी एक रेखीय नहीं है, इसलिए मुद्दे पर युग्मक बयानबाजी से कहीं आगे जाकर विचार करने की जरूरत है।
इसके समर्थक तो कहते हैं कि 1951 से 1967 तक एक साथ चुनाव होते रहे हैं। यह सच है, लेकिन क्या इसने ऐसा शासन दिया जिसकी जरूरत थी, इसलिए ज्ञात और अज्ञात कारणों को सुलझाए जाने की जरूरत है। दूसरी बात, 1967 के बाद बाधाएं आईं, क्योंकि सत्ता में आई क्षेत्रीय पार्टियां अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं। प्रसंगवश, बाधित करने वाले कारक आज भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि कई राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां सत्ता में हैं और बहुमत कानून के जरिये नहीं लाया जा सकता।
फिर इसकी स्थिरता को लेकर भी सवाल हैं। तब क्या होगा, जब कोई सरकार कार्यकाल पूरा करने से पहले ही गिर जाए? इसके समाधान के जो सुझाव दिए गए हैं, उनमें से कई तो समस्या खड़ी करने वाले हैं। इसमें संसद और विधानसभाओं का नियत कार्यकाल, दल बदल विरोधी कानून में संशोधन से आयाराम गयाराम राजनीति की वापसी, अविश्वास प्रस्ताव के साथ ही विश्वास प्रस्ताव, मध्यावधि चुनाव की स्थिति में चुनाव सिर्फ बचे कार्यकाल के लिए हो। और फिर इन विचारों पर अमल के लिए संविधान में संशोधन की जरूरत होगी। इस विचारोत्तेजक प्रस्ताव के शोर-शराबे में दफन हो जाने का जोखिम है। इस पर विचार किए जाने की जरूरत है।
यह हो सकता है कि चुनावों को दो समूहों में बांट दिया जाए, 2019 की गर्मियों में कुछ राज्यों में और 2021 की गर्मियों में बाकी राज्यों में और कुछ राज्यों में विधानसभा का कार्यकाल बढ़ाकर ऐसा किया जा सकता है। इसके लिए व्यापक विमर्श की जरूरत है। लोकतंत्र का विचार एक सतत प्रक्रिया है, और इसमें सहमति से छोटे छोटे कदम उठाने की जरूरत होती है।