Hindi, asked by bithi4989, 10 months ago

Dahej Samaj ke liye ek kalank Hai Is par nibandh

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Answered by shishir303
96

निबंध...

                          ।। दहेज समाज के लिये कलंक  ।।

हमारे भारतीय समाज में दहेज की प्रथा आज भी प्रचलन बना हुआ है। यह प्रथा हमारे लिए एक सामाजिक कलंक बनकर रह गयी है। इस प्रथा ने हमारे समाज को शर्मसार कर दिया है। दहेज की प्रथा ना केवल स्त्री के अस्मिता पर हमला है बल्कि यह एक ओछी मानसिकता का भी प्रतीक है। दहेज के कारण पहले ही कितनी स्त्रियों को अपनी जान गंवानी पड़ी है, हम सभी जानते हैं। भले ही सरकार द्वारा दहेज कानून पास किया गया हो और दहेज को लेना या देना अपराध बना दिया गया हो, परन्तु आज भी भारत के कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां पर गुपचुप दहेज लिया और दिया जाता है। हम पूरी तरह से सामाजिक रूप से इस प्रथा से मुक्त नहीं हो पाए हैं।  

दहेज प्रथा महिलाओं की अस्मिता पर हमला है, यह उनकी योग्यता, क्षमता और गुणों का अपमान भी है। लड़की कितनी भी मेहनत कर ले, कितना भी पढ़े-लिख ले, कितनी सुंदर क्यों न हो  लेकिन दहेज की मांग कर उसकी योग्यता और सुंदरता और उसके गुणों को कम करके आंका जाता है। उसके गुणों पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है जो कि किसी भी तरह से उचित नहीं है।  

यह प्रथा लड़की के पिता पर दबाव बनाती जिसके कारण लड़की के पिता को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इस कारण देश के कई हिस्सों में लड़कियों को आज भी बोझ समझा जाता है। इसका एक मात्र कारण दहेज प्रथा है।  

हमें खाली कानून बनाने से कुछ नहीं होगा। हमें चाहिये कि हम नैतिक और सामाजिक रूप से जागरूक होकर इस प्रथा के विरूद्ध आंदोलन छेडें। हमें लैंगिक समानता के प्रति जागरूक होना है ताकि लड़का-लड़की एक समान समझा जा सके। युवकों को भी इस विषय में आगे आना चाहिये और दहेज के लोभी अपने परिवार वालों का विरोध करना चाहिये तथा उन पर दहेज रहित विवाह का दबाव बनाना चाहिये।

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Answered by begamsabnajbegam
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Answer:दहेज प्रथा: सामाजिक कलंक पर निबन्ध | Essay on Dowry System : A Social Stigma in Hindi!

आज भारतीय समाज र्मे सबसे बड़ा सामाजिक कलंक है- दहेज प्रथा । दहेज जैसी कुप्रथा न केवल समाज बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र के विकास के मार्ग में अइवरोधक है । समाज इस कुप्रथा के कारण जर्जर होता जा रहा है ।

यद्यपि प्राचीन समय से ही पिता द्वारा अपनी कन्या को उपहार, इत्यादि देने का प्रचलन था तथापि इसने कुरूपता धारण नहीं की थी, किन्तु शनै-शनै: यह विकृत स्वरूप धारण करती गई और दहेज-प्रथा जैसे कलंकित नाम से ‘अलंकृत’ हो गई ।

चिन्तनात्मक विकास:

विज्ञान ने समस्त विश्व को सीमित कर दिया है । इतनी विशाल दुनिया सिमट कर रह गई है । हम इसके सहारे न जाने कहाँ-कहाँ तक पहुँच गए हैं और दूसरी ओर हम घिसी-पिटी परम्परा पर ही जमकर बैठ गए हैं । कहाँ तक इसमें औचित्य है ।

यह एक प्रकार से चिन्तनीय विषय है । इस प्रथा का अभाव गाँवों में ही नहीं अपितु नगरों र्मे भी है । सुसंस्कृत एयै सुशिक्षित नगरवासियों में भी दहेज रूप में धन-लोलुपता बढ़ती चली जा रही है । लड़के की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति के आधार पर यह दहेज लड़की वालों से माँगा जाता है । यदि लड़का कहै। अच्छे क्या ऊँचे पद पर है तो दहेज की मात्रा की माँग और अधिक बढ़ जाती है ।

लड़की वाले की स्थिति के बिषय र्मे ये कभी विचार ही नहीं करते । परिणामस्वरूप लड़की के माता-पिता दहेज जुटाने में कर्जदार भई। हो जाते हैं । लड़कियों द्वारा विवाह से पूर्व ही दहेज न देने के कारण आत्मक्ष्मायें कर जी जाती हैं । अथवा नवविवाहिता द्वारा कम दहेज देने या दहेज न देने के कारण आत्महत्यार्ये कर ली जाती हैं । आज प्रतिदिन ऐसी घटनाऐं देखने एवं सुनने र्मे आती हैं ।

दहेज की माँग से तो ऐसा मालूम होता है कि यह विवाह न होकर लड़के का सौदा हो रहा है । हमारे देश मे हर जगह हर वर्ग र्मे दहेज प्रथा का विकृत स्वरूप व्याप्त है । यद्यपि देश में समाजसुधारको एब धर्मतत्ववेत्ताओं की कमी नहीं रही है तथापि यह ‘कुप्रथा’ दिन पर दिन विकट रूप धारण करती जा रही हैं-यह बडे खेद का विषय है ।

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