India Languages, asked by rajsalunke2005, 11 months ago

Essay on 'महाराष्ट्रातील संत कवी'

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Answered by animallover17
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तुकाराम यानी तुकोबा महाराष्ट्र के महान संत और कवि थे। वे केवल वारकरी संप्रदाय के ही शिखर नहीं वरन दुनिया भर के साहित्य में भी उनकी जगह असाधारण है। उनके अभंग अंगरेजी भाषा में भी अनुवादित हुए हैं। उनका काव्य और साहित्य रत्नों का खजाना है। यही वजह है कि आज सैकड़ों वर्षों बाद भी वे आम आदमी के मन में सीधे उतरते हैं।

ऐसे महान संत कवि तुकाराम का 17वीं सदी में पुणे के देहू कस्बे में जन्म हुआ था। उनके पिता छोटे-से काराबोरी थे। उन्होंने महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन की नींव डाली। वे तत्कालीन भारत में चले रहे 'भक्ति आंदोलन' के एक प्रमुख स्तंभ थे। उन्हें 'तुकोबा' भी कहा जाता है। तुकाराम को चैतन्य नामक साधु ने 'रामकृष्ण हरि' मंत्र का स्वप्न में उपदेश दिया था। वे विट्ठल यानी विष्णु के परम भक्त थे। तुकराम जी की गहरी अनुभव दृष्टि बेहद गहरी व ईशपरक रही, जिसके चलते उन्हें कहने में संकोच न था कि उनकी वाणी स्वयंभू, ईश्वर की वाणी है। उनका कहना था कि दुनिया में कोई भी दिखावटी चीज नहीं टिकती। झूठ लंबे समय तक संभाला नहीं जा सकता। झूठ से सख्त परहेज रखने वाले तुकाराम को संत नामदेव का रूप माना गया है। इनका समय सत्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध का रहा।

दुनियादारी निभाते एक आम आदमी संत कैसे बना, साथ ही किसी भी जाति या धर्म में जन्म लेकर उत्कट भक्ति और सदाचार के बल पर आत्मविकास साधा जा सकता है। यह विश्वास आम इंसान के मन में निर्माण करने वाले थे संत तुकाराम यानी तुकोबा। अपने विचारों, अपने आचरण और अपनी वाणी से अर्थपूर्ण तालमेल साधते अपनी जिंदगी को परिपूर्ण करने वाले तुकाराम जनसामान्य को हमेशा कैसे जीना चाहिए, यही प्रेरणा देते हैं।

उनके जीवन में एक समय ऐसा भी जब वे जिंदगी के पूर्वार्द्ध में आए हादसों से हार कर निराश हो चुके थे। जिंदगी पर उनका भरोसा उठ चुका था। ऐसे में उन्हें किसी सहारे की बेहद जरूरत थी, लौकिक सहारा तो किसी का था नहीं। सो पाडुरंग पर उन्होंने अपना सारा भार सौंप दिया और साधना शुरू की, जबकि उस वक्त उनके गुरु कोई भी नहीं थे। उन्होंने विट्ठल (विष्णु) भक्ति की परपंरा का जतन करके नामदेव भक्ति की अभंग रचना की।

दुनियादारी से लगाव छोड़ने की बात भले ही तुकाराम ने कही हो लेकिन दुनियादारी मत करो, ऐसा कभी नहीं कहा। सच कहें तो किसी भी संत ने दुनियादारी छोड़ने की बात की ही नहीं। उल्टे संत नामदेव, एकनाथ ने सही व्यवस्थित तरीके से दुनियादारी निभाई। वे समर्थ रामदास व छत्रपति शिवाजी के समकालीन थे। आपका व्यक्तित्व बड़ा मौलिक व प्रेरणास्पद है। वे धर्म व अध्यात्म के साकार विग्रह थे। निम्न वर्ग में जन्म लेने के बावजूद वे कई शास्त्रकारों व समकालीन संतों से वे बहुत आगे थे। अत्यंत सरल और मधुर स्वाभाव के थे।

एक बार की बात है संत तुकाराम अपने आश्रम में बैठे हुए थे। तभी उनका एक शिष्य, जो स्वभाव से थोड़ा क्रोधी था उनके समक्ष आया और बोला- गुरुदेव आप विषम परिस्थिति में भी इतने शांत और मुस्कुराते हुए कैसे रह पाते है, कृपया इसका रहस्य बताए। तुकाराम जी बोले- मैं इसलिए ये सब कर पाता हूं, क्योंकि मुझे तुम्हारा रहस्य पता है।

शिष्य ने कहा- मेरा क्या रहस्य गुरुदेव कृपया बताइए। संत तुकाराम जी दुखी होते हुए बोले- तुम अगले एक सप्ताह में मरने वाले हो। कोई और कहता तो शिष्य ये बात मजाक में टाल सकता था, पर स्वयं संत तुकाराम के मुख से निकली बात को कोई कैसे काट सकता था? शिष्य उदास हो गया और गुरु का आशीर्वाद लेकर वहां से चला गया।

रास्ते में मन ही मन सोचा की अब बस केवल 7 दिन ही रह गए है जीवन के गुरुजी द्वारा दी गई शिक्षा से शेष 7 दिन विनय, प्रेम और प्रभु भक्ति में लगाऊंगा। उसी समय से शिष्य का स्वभाव बदल गया। वह हर किसी से प्रेम से मिलता और किसी पर भी क्रोध न करता, अपना ज्यादातर समय ध्यान और पूजा में लगाता। अपने जीवन में किए गए पापों का प्रायश्चित करता, जिन लोगो से उसने कभी मनमुटाव किया हो या दिल दुखाया हो उन सभी से सचे ह्रदय से क्षमा मांगता और पुनः अपने नित्य काम निपटा कर प्रभु स्मरण में लीन हो जाता। ऐसे करते हुए सातवां दिन आ गया तो शिष्य ने सोचा, मृत्यु पूर्व अपने गुरु के दर्शन कर लूं। इसके लिए वो तुकाराम जी से मिलने गया और बोला- शिष्य - गुरु जी, मेरा समय पूरा होने वाला है, कृपया मुझे आशीर्वाद दीजिए।

संत तुकाराम जी बोले- मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है पुत्र, शतायु भाव। गुरु के मुख से शतायु का आशीर्वाद सुनकर शिष्य चकित रह गया। तुकाराम जी ने शिष्य से पूछा अच्छा, ये बताओ कि पिछले सात दिन कैसे बीते? क्या तुम पहले की तरह ही लोगों से नाराज हुए, उन्हें अपशब्द कहे?

हाथ जोड़ते हुए शिष्य ने कहा - नहीं-नहीं, बिलकुल नहीं। मेरे पास जीने के लिए सिर्फ सात दिन थे, मैं इसे बेकार की बातों में कैसे गंवा सकता था? मैं तो सबसे प्रेम से मिला, और जिन लोगों का कभी दिल दुखाया था उनसे क्षमा भी मांगी।

संत तुकाराम मुस्कुराए और बोले- बस यही तो मेरे अच्छे व्यवहार का रहस्य है। मैं जानता हूं कि मैं कभी भी मर सकता हूं, इसलिए मैं हर किसी से प्रेमपूर्ण व्यवहार करता हूं और यही मेरे क्रोध के दमन का रहस्य है..!

शिष्य तुरंत समझ गया कि संत तुकाराम ने उसे जीवन की अनमोल शिक्षा देने के लिए मृत्यु का भय दिखाया था, उसने गुरु की बात की गांठ बांध ली और फिर कभी भी क्रोध न करने का विचार करके खुशी-खुशी वहां से लौट गया।

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