essay on mera pyara gift in hindi
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मैं अक्सर सोचता था कि मेरी दादी को बर्दवान स्थित हमारे पैतृक घर में रखी एक जंग लगी, पुरानी और टूटी-फूटी साइकिल से इतना लगाव क्यों था। जब मैंने उनसे पूछा कि वह उस ‘पुरानी वस्तु’ को किसी कबाड़ी को बेच क्यों नहीं देती, तो उन्होंने तुरंत मुझे डांटते हुए रोक दिया। “उसे छूना मत! वह राम का पीनू को उपहार था!”। और फिर एक कहानी सामने आई। पुरानी साइकिल और दो भाइयों की यादगार कहानी, जिनमें से बड़ा, राम, मेरे पिता थे और उनके छोटे भाई, पीनू, मेरे ‘छोटे काका’। वह 1944 की गर्मियां थीं।बंगाल अभी भी महान अकाल की चपेट में था। देश आजादी के संघर्ष और दूसरे विश्व युद्ध के मध्य में था। मेरे दादा जी, बर्दवान के महाराजा की सेवा में एक शल्यचिकित्सक थे और अपने बड़े परिवार की देखभाल करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। जिस बैंक में उनकी जमा राशि थी वह डूब गया और उनके सभी निवेश शेयर बाजार में अटक गए थे। जिंदगी सच में बहुत मुश्किल थी। दादा जी की इकलौती संपत्ति केवल बर्दवान में हमारा घर और मेरी दादी के कुछ गहने थे। सबसे छोटा बेटा था पिनाकी या पीनू, आठ वर्ष का एक छोटा सा खुशमिजाज़ लड़का, जो सबकी आंखों का तारा था।परन्तु पीनू उसके परिवार के द्वारा झेले जा रहे वित्तीय संकट से बेखबर था। एक दोपहर, उसने एक लड़के को हमारे घर वाली सड़क पर एक सुन्दर साइकिल चलाते हुए देखा। पीनू ने उस साइकिल की ज़िद पकड़ ली। उसने साइकिल के न मिलने तक अन्न का एक निवाला भी खाने से इनकार कर दिया। साइकिल खरीदना असंभव था क्योंकि वह 50 रुपये की थी, जो उस समय में, मेरे दादा जी खर्च नहीं कर सकते थे। पीनू ने बहुत आंसू बहाए और किसी भी तरीके से उसे बहलाया नहीं जा सका।दादा जी उसके लिए एक कैरम बोर्ड लाए। दादी ने उसके लिए ‘पायेश’ (चावल की खीर) बनायी। लेकिन पीनू को बहलाया नहीं जा सका। उस शाम परिवार के दूसरे बेटे मेरे पिता राम, कोलकाता से घर वापस आये। वे वहां एक मेडिकल छात्र के रूप में, वह बहुत संघर्ष कर रहे थे। वह कमजोर छात्रों को पढ़ाते और रोगियों की देखभाल करने के लिए स्वयंसेवा करते। वहां एक रोगी था जिसे रोज एक मूत्राशय की थैली धोने की जरूरत थी, मेरे पिता ने वह कार्य स्वीकार किया, केवल कुछ अतिरिक्त पैसे कमाने के लिए। लेकिन शायद उनका सबसे बड़ा बलिदान वह था जब उन्होंने स्वयं को गोपनीय रूप से रक्तदाता के रूप में पंजीकृत करा लिया।जब पैसों की तत्काल जरूरत होती थी, पिताजी गोपनीय रूप से रक्त दान कर देते थे। जब उन्हें पता चला कि उनका छोटा भाई ग़मगीन था क्योंकि मेरे दादा जी उसे वह साइकिल खरीद कर नहीं दे सकते थे, वह चुपचाप कोलकाता किसी जरूरी काम को पूरा करने के बहाने से चले गए। दो दिन बाद, वह वापस आए, एक चमचमाती नई साइकिल के साथ। पड़ोस में रहने वाले अमीर लड़के की साइकिल के जैसी। छोटा पीनू बहुत खुश था। उसने मेरे पिता को गले लगाया और आंगन में साइकिल की घंटी बजाते हुए चलने लगा।मेरे दादा-दादी दोनों मेरे पिता से जानना चाहते थे कि उन्होंने यह लगभग नामुमकिन कार्य कैसे किया। परन्तु वह एकदम चुप थे। केवल मेरी दादी को पता था और वह अपने बेटे की उदारता से दंग रह गयी थी। मेरे पिता ने गोपनीय रूप से रक्तदान किया था, केवल अपने भाई को साइकिल देने के लिए। आज, उनमें से कोई भी हमारे बीच नहीं है। परन्तु वह पुरानी साइकिल है केवल हमें यह याद दिलाने के लिए कि प्यार पूर्ण रूप से नि:स्वार्थ होना और दूसरों को खुश करना है। वह देता है परन्तु बदले में किसी चीज़ की उम्मीद नहीं करता है।.
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