filmo me hinsa par aalekh lekhan
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फिल्मों में हिंसा दिखाने का प्रचलन बहुत पुराना है। पुरानी फिल्मों में हीरो और विलेन की फाइट ही क्लाइमेक्स का सबसे मजबूत आधार होती थी, परंतु बीते दशकों में फ़िल्म निर्माताओं में हिंसा को ही पूरी स्क्रिप्ट का आधार बना दिया है। फ़िल्म के पहले सीन से आखिरी सीन तक मार-धाड़, गोलीबारी और एक्शन दृश्यों की भरमार रहती है।
फिल्म-निर्माताओं ने दर्शकों में एक ऐसी श्रेणी ढूंढ ली है जिसे स्क्रिप्ट की मौलिकता, रचनात्मकता और भावों के सम्प्रेषण से कोई सरोकार नहीं है। उन्हें सिर्फ और सिर्फ हिंसा देखने का चस्का है, व्यावसायिक सिनेमा में इस श्रेणी को आकर्षित करने के लिए बिकने लायक मसाला जरूरी है जिसमें हिंसा की छौंक लगाई जाती है।
एक सर्वे के अनुसार 2018 में गुड़गांव में दर्ज हिंसा-अपराधों में से 28% फिल्मों से प्रभावित थे या अपराधियों का तौर-तरीका बॉलीवुड फिल्मों से प्रेरित था। समाज पर ऐसी फिल्मों का कैसा प्रतिकूल असर पड़ता है, इस बात का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं।
एक अन्य समस्या यह है कि बाल-मस्तिष्क पर इस हिंसा का बेहद गहरा असर पड़ता है। मनोवैज्ञानिको के अनुसार फिल्मों में दिखाई जाने वाली हिंसा के चलते युवा पीढ़ी, खासकर किशोरों के व्यवहार में अप्रत्याशित उत्तेजना, चिड़चिड़ापन और हिंसक भावनाओं में वृद्धि दर्ज की गई है।
फ़िल्म निर्माताओं को चाहिए कि वे अपनी फिल्मों में हिंसा से निर्भरता हटाकर रचनात्मकता की तरफ ध्यान दें।
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