Hindi essay on apne liye jiya toh kya jiya
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आज से 50 साल पहले 1966 में आई फिल्म बादल का ये गीत तो आपने सुना ही होगा. इस गीत को सुनकर भुलाना नामुमकिन है. सच तो यह है, कि यह महज गीत न होकर अपने में एक खरा और भरापूरा फलसफा है. देश-दुनिया में बहुत-से लोग हैं, इस फलसफे का अनुसरण कर समाज का कल्याण करने में प्रयासरत हैं. आइए इसी फलसफे के मूर्तरूप के दर्शन इस ब्लॉग में करते हैं.
मुंबई शहर में न लोगों की कमी हैं और न ही उनका पेट भरने के लिए होटलों व रेस्तरांओं की ही कमी है. अलग-अलग राज्यों और संस्कृतियों से आए लोगों के खाने-पीने की अलग आदतों के लिए भी, इस शहर में भरपूर जगह है. वैष्णव होटल हो या फिर मुगलई व्यंजनों के रेस्तरां, पारसी, जैन, दक्षिण भारतीय, इंदौरी, पहाड़ी और कॉन्टिनेंटल व्यंजनों के इतने रेस्तरां हैं, कि इन्हें गिनना मुश्किल हो जाएगा. सड़क किनारे रेहड़ियों पर बिकने वाला खाना हों या फिर बजट और पांच-सात सितारा रेस्तरां, इस शहर में खाने और परोसने वालों की कभी कोई कमी नहीं होती.
मुंबई महानगरी में एक रेस्तरां ऐसा भी है, जिसकी खासियत यहां खाने का ऑर्डर लेने व खाना परोसने वालों के कारण है. ‘मिर्ची ऐंड माइम’ नाम के इस रेस्तरां में काम करने वाले 22 वेटर विकलांग हैं. ज्यादातर वेटर मूक-बधिर हैं, फिर भी न खाने का ऑर्डर देने वालों को और न ही खाना परोसने वालों को ही कोई दिक्कत होती है. यहां आपको अपना ऑर्डर बताने के लिए वेटरों को बोलकर बताने की जरूरत नहीं पड़ती, बस इशारे ही काफी होते हैं.
इस रेस्तरां के मालिक प्रशांत इस्सर बताते हैं, ‘हमने यह सीखा है अपनी जिंदगी में कि कोई भी काम करो, तो केवल अपने लिए मत करो. समाज के लिए भी करो. जब हम लोग ये सोच रहे थे उसी समय हमारे निवेशक, शिशिर और रेड्डी ने हमें बताया, कि दुनिया में एक ऐसा रेस्तरां खुला है जहां केवल विकलांग काम करते हैं. उन्होंने हमसे कहा कि अगर आप ऐसा ही एक रेस्तरां खोल सको, तो बहुत अच्छा होगा. चूंकि हम रेस्तरां के बिजनस से अच्छी तरह वाकिफ हैं, तो हमने कहा कि क्यों नहीं.’
प्रशांत आगे बताते हैं, ‘हमने कहा कि अगर दुनिया में कहीं और खुला है, तो हम भारत में तो उससे अच्छा ही खोलेंगे. यही सोचकर हमने मिर्ची और माइम बनाया.’ रेस्तरां शुरू करने में आई मुश्किलों के बारे में बताते हुए प्रशांत कहते हैं, ‘चुनौतियां थीं, मुश्किलें भी थीं. इन लोगों को राजी करना था. इनके अभिभावकों को राजी करना था. इनमें से कई ने तो कभी नौकरी भी नहीं की थी. हमने ये सब किया और लोगों की व इनके अभिभावकों की सहायता से आखिरकार हमें हमारी टीम मिल गई.’
रेस्तरां में प्रशांत के भागीदार अनुज शाह ‘मिर्ची ऐंड माइम’ के बारे में बताते हुए कहते हैं, ‘हमारे रेस्तरां में भारतीय खाना परोसा जाता है. भारतीय खाने में सबसे मुख्य सामग्री मिर्ची होती है. इस तरह हमने मिर्ची सोचा. हमारा जो सर्विस ऑर्डर है उसमे सबको माइम करना होता है. यह नाम बहुत सही है हमारे रेस्तरां के लिए.’ मालूम हो कि मुंह से न बोल कर, संकेतों और हाथ के इशारों से अपनी बात समझाने की कोशिश करने को माइम कहते हैं.
इस रेस्तरां की खासियत के बारे में बताते हुए अनुज कहते हैं, ‘हमारे रेस्तरां में कई चीजें खास हैं, लेकिन सबसे खास हमारे यहां काम करने वाले लोग हैं. उनके कपड़ों के पीछे लिखा होता है ‘मैं संकेतों की भाषा समझता हूं. आपका सुपरपावर क्या है?’ हम लोगों को दिखाना चाहते थे, कि संकेतों से बात करना उनकी ताकत है, आपकी ताकत क्या है.’ वह कहते हैं, ‘हमने उन्हें उनकी विकलांगता के कारण नौकरी पर नहीं रखा, बल्कि हमने उनकी योग्यता के कारण उन्हें नौकरी दी है.’ रेस्तरां के बारे में आगे बताते हुए प्रशांत कहते हैं, ‘हमें लगा कि रेस्तरां के लिए जो चाहिए, वह इन्हीं में मिल सकता है. एक है मुस्कुराहट, दूसरी बात है फोकस और तीसरी है आत्मज्ञान. हमें लगा कि हमसे कहीं ज्यादा ये गुण इन लोगों के अंदर है.’
यहां काम करने वाली एक महिला कर्मचारी ने सांकेतिक भाषा में कहा, ‘सारे प्रशिक्षण और टीचरों के कारण मैं सारा काम बहुत आसान और आराम से कर पा रही हूं.’ यहां काम करने वाले एक अन्य युवक ने अपने प्रशिक्षक के माध्यम से सांकेतिक भाषा में बताया, ”यहां काम करके मैं बहुत खुश हूं. मुझे यहां काम करना बहुत पसंद है.’ यहां खाना खाने आई एक युवती ने कहा, ‘इनकी सर्विस, इनका प्यार और जिस बखूबी से ये अपना काम करते हैं, उसे देखकर यहां बहुत अच्छा लगता है.’
अनुज और प्रशांत की कोशिश का नतीजा है कि आज ये सभी न केवल आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर हैं, बल्कि अपनी जिंदगी में पहले से कहीं ज्यादा खुश भी हैं. प्रशांत कहते हैं, ‘हमने ये लोगों की सहानुभूति या वाहवाही पाने के लिए नहीं किया है. हमें यकीन है कि इनसे बेहतर इस काम को कोई नहीं कर सकता है. समाज में योगदान देने और समाज के लिए कुछ करने का हमारा यही तरीका है.’ इन दोनों ने अन्य रेस्तरां मालिकों से भी अपील की, कि वे अपने यहां ऐसे लोगों को काम करने का मौका दें.
अनुज और प्रशांत जी, आपका यह प्रयोग नायाब और काबिलेतारीफ है. आपने स्वयं तो यह नेक काम किया ही है, अन्य लोगों को भी इसके लिए प्रेरित कर रहे हैं, यह बहुत अच्छा लगा. हम भी आपके साथ हैं. आपके लिए हमारी कोटिशः शुभकामनाएं. निवेशक, शिशिर और रेड्डी को भी हमारे कोटिशः सलाम, जिन्होंने स्वयं आगे बढ़कर अनुज और प्रशांत को ऐसा रेस्तरां खोलने के लिए प्रेरित किया, जहां केवल विकलांग काम करते हों.
Hlo dear user
♧ अनुच्छेद ।
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■ अपने लिए जिये तो क्या जिये ।
□ आपने अक्सर लोगों को कहते हुए सुना होगा कि मनुष्य वहीं जो मनुष्य के लिए जिये ।
यानी जो मनुष्य खुद के लिए नही बल्कि दूसरों के लिए जिये वहीं मनुष्य कहलाने का असली हकदार होता हैं । अन्यथा वे पशु के समान होते हैं ।
□ अपना क्या हैं अपने लिए तो पशु भी जी लेते हैं जिनके हाथ भी नहीं होते । अगर ऐसे ही पृथ्वी पर सबसे बुद्धिमान कहलाए जाने वाले मनुष्य भी ऐसा करने लगे तो दोनों में भेद कर पाना मुश्किल हो जाएगा । जो मानव जाति को शर्मनाक करने के लिए काफी हैं ।
□ इस कथन को और स्पष्ट करने के लिए आइये हम एक उदाहरण के माध्यम से हम इसे समझते हैं ।
■ परिवार
किसी भी परिवार में माता और पिता मुख्य होते हैं । जो स्वावलंबी ( अपने पैरों पर खड़ा होना ) होते हैं । और वही आपका ध्यान जैसे पढ़ाना , लिखना आपका हर प्रकार की जरूरतों को पूरा करना , किसी भी चीज की कमी ना होने देना आदि भली - भाँति करते हैं अगर वहीं खुद के बारे में सोचने व जीने लगे तो हर वह बच्चे का क्या होगा जो आत्मनिर्भर नहीं होता । सोचने में अजीब सा लगता हैं मगर ऐसा नहीं हैं । इस प्रकार हमें खुद के लिए नही बल्कि अन्य के लिए जीना चाहिए , ऐसा उदाहरण हमें अपने परिवार में ही देखने को मिलता है ।
■ शिक्षक
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□ जैसे एक शिक्षक खुद शिक्षित हो कर अन्य को शिक्षित कर देता हैं । अगर वह अपने लिए जीना शुरू कर दें तो अन्य छात्रों का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा । जिससे देश का भविष्य खतरे की ओर अग्रसर होगा ।
□ इतिहास भी अब तक यही बताता हैं खुद के लिए जीने वाले पशु व दूसरों के लिए जीने वाले महान बनें ।
□ किन्तु आजकल के लोग स्वार्थी हो गए हैं । अब उन्हें दूसरों की कोई परवाह नहीं हैं । अगर सभी मनुष्य ऐसे ही जीने लगे तो इस संसार में मानवता व दया नाम की कोई चीज़ नहीं रह जाएगी । हाँ , हम कुछ अन्य लोगों को दूसरों की सहायता करते देखा होगा । असल में वही मनुष्य कहलाने के असली हकदार हैं ।
● निष्कर्ष
□ उपयुक्त कथन का निष्कर्ष यही निकलता है जिंदगी मिली हैं तो दूसरों की सहायता करों , उन्हें खुश रखो , जहाँ तक हो सकें किसी को भूखा न रहने दों , उनकी इच्छाओं की पूर्ति तन और मन लगाकर करों । जीने का सबसे बड़ा सुख यही हैं ।
अंत में
♡ प्राणी वहीं जो प्राणियों के लिए जिये ♡