Hindi, asked by aadarsh528, 5 months ago

ईर्ष्या, द्वेष, निंदा, घृणा, गुस्सा आदि नकारात्मक भाव जागने से मनुष्य के व्यक्तित्व में क्या बदलाव
आता है?​

Answers

Answered by AnviAdhit
14

Answer:

ईर्ष्या एक ऐसा शब्द है जो मानव के खुद के जीवन को तो तहस-नहस करता है औरों के जीवन में भी खलबली मचाता है। यदि आप किसी को सुख या खुशी नहीं दे सकते तो कम से कम दूसरों के सुख और खुशी देखकर जलिए मत। यदि आपको खुश नहीं होना है न सही मत होइए खुश, किन्तु किसी की

खुशियों को देखकर अपने आपको ईर्ष्या की आग में ना जलाएं।

Mark me as brainliest please

Answered by niishaa
6

{\huge{\boxed{\tt{\color {red}{Answer❀✿°᭄࿐}}}}}

जी हाँ , भारतीय आध्यात्म , दर्शन , धर्मग्रन्थों में ईर्ष्या को मानव जीवन की इंद्रियों के लिए जहर बताया है ।। जिस व्यक्ति में ईर्ष्या का भाव होता है । उसका मानसिक - शारीरिक स्वास्थ्य असमय ही खराब हो जाता है ।। वह अस्वस्थ हो जाता है । ईर्ष्या से ग्रसित लोग का यह दुर्गुण उनके स्वभाव से पता चल जाता है । उनमें अपना तेजस्व , ऊर्जा , शक्ति , साकारत्मक सोच आदि का हनन हो जाता है । शरीर रोगग्रत हो जाता है । इन नकारात्मक दुर्गुणों से मनुष्य की पाचन प्रणाली में रसायनिक परिवर्तन होने से पित्त बढ़ जाता है । पित्त जो मानव के हृदय , मस्तिष्क की कोशिकाओं बुद्धि का नष्ट कर देती हैं । ऐसे लोगों में पथरी , जलन , यकृत आदि के रोगों को जन्म देता है । असंतुलित पित्त रक्त में घुलकर भूख न लगने जैसी बीमारी हो जाती है । ईर्ष्या में रहनेवाला व्यक्ति धीरे - धीरे समय से पहले बूढा दिखने लगता है । अपने विवेक को खो बैठता है । यह आसुरी वृत्ति , अवगुण मानव को दुख ही देता है । इसलिए हमारे मनीषियों ने ईर्ष्या के रास्ते से जाने रोका है । अतः हमें दैवीय गुणों जैसे अंहिसा परिवार के दया , प्रेम दया आदि को संस्कारो में अपनाना चाहिए । योग विद्या को माने । आप 1 महीना योग प्रशिक्षक से योग सीखें । आपका सकारात्मक सोच होने लगेगी । रोग को भगाने में सहायक होगा ।हम अपना अनमोल मानव जीवन को ईर्ष्या के वशीभूत होकर न खत्म करें । हमें दूसरों की खुशियों को देख जे कुढ़न , जलन नहीं होनी चाहिए । अगर समाज में तुम्हारे पहचान का व्यक्ति सफलता का शिखर छूता है । जलने की जरूरत नहीं है । बल्कि उसकी खुशी को बढ़ावा देना चाहिए । कहने का मतलब यही है कि ईर्ष्या हमारी जिंदगी को जलाती है । हमारा स्वभाव झगड़ालू हो जाता है । हम दूसरों से जरा - जरा बात पर लड़ाई करते हैं । कलह करना किसी को अच्छा नहीं लगता है । हम अपने भाई बहनों , दोस्तों की उन्नति देख के जलते हैं । अतः हमें इस विनाश कारी जहर को जीवन से उगलना होगा । तभी हम स्वस्थ जिंदगी जी सकते हैं । उँचाइयों को पा सकते हैं । अंत में दोहे में मैं कहती हूँ : -

हम ईर्ष्या की आग में , जलकर न होय राख ।

अपनाएँ संस्कार हम , मिले हमें जग साख ।

Similar questions