जो जीवन-सुमन चढ़ा जननी के चरणों में,
सौ-सौ नंदन भी कब उसकी समता करते?
यमुना की लहरें नमन उसी को करती हैं,
गंगा की धारा उसका तर्पण करती है।
मधुऋतु भी उसके स्वागत में नतमस्तक हो
गर्वित आँखों से आँसू अर्पण करती है।
तरुणाई के लोहू से सिंचित जो धरती,
सौ-सौ मधुवन भी कब उसकी समता करते?
प्राची के अंबर में अरुणोदय की लाली,
हररोज़ सवेरे उसकी याद दिला जाती।
वह नव्ययौवना पाटल-कुसुमों की क्यारी,
उस बलिदानी के शोणित से लाली पाती।
जो गले लगा लेता हँसकर अंगारों को,
सौ-सौ आलिंगन कब उसकी समता करते? in panktiyo ka saransh apne sabdo me likhe.
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श्रद्धया इदं श्राद्धम् (जो श्र्द्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है।) भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है।
हिन्दू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिसमे हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था "प्रेत" है क्यों की आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।