Sociology, asked by rahulrj6931, 1 year ago

क्या आप इस कथन से सहमत हैं कि - 'एक गरीब और विकासशील देश में कुछ एक बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकार मौलिक अधिकारों की केंद्रीय विशेषता के रूप में दर्ज करने के बजाए राज्य की नीति-निर्देशक तत्त्वों वाले खंड में क्यों रख दिए गए - यह स्पष्ट नहीं है।’ आपके जानते सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति निर्देशक तत्त्व वाले खंड में रखने के क्या कारण रहे होंगे?

Answers

Answered by Parkhu123
0

Explanation:

ha sehmat hai..... . ...

Answered by shishir303
3

हाँ, हम इस कथन से सहमत हैं कि भारतीय संविधान में नागरिकों के आर्थिक अधिकारों के संबंध में कोई स्पष्ट व्याख्या या वर्णन नही है।

भारतीय संविधान के तीसरे भाग में अनुच्छेद 12 से लेकर अनुच्छेद संख्या 35 तक भारत के नागरिकों के लिए मौलिक अधिकारों का वर्णन किया क्या है, लेकिन जिन मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है वह उनका स्वरूप सांस्कृतिक व नागरिकी है। भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकार के संबंध में आर्थिक अधिकारों को इन मौलिक अधिकारों में जगह नहीं दी गई है।

संविधान के चौथे भाग में अनुच्छेद संख्या 36 से अनुच्छेद संख्या 51 तक राज्य के नीति संबंधी निर्देशक तत्वों का वर्णन किया गया है लेकिन और उसमें नागरिकों के लिए सामाजिक आर्थिक सुविधाओं का वादा तो किया है और समुचित रोजगार व उचित वेतन का वायदा तो किया है लेकिन अधिकारों के रूप में सुनिश्चित नही है। शायद उस समय यह कारण रहा होगा कि जब भारत आजाद हुआ तो उसकी आर्थिक स्थिति मजबूत न थी और ना ही पर्याप्त आर्थिक स्रोत थे। उस समय शायद संविधान निर्माताओं ने नागरिकों के सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकारों को मजबूत करने की आवश्यकता समझी हो। शायद समय आर्थिक अधिकारों पर उतना गौर नहीं किया गया हो।

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