लोक संस्कृति लोक साहित्य का अभिनंदन है इस कथन की समीक्षा कीजिए
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लोक संस्कृति कभी भी शिष्ट समाज की आश्रित नहीं रही है, उलटे शिष्ट समाज लोक संस्कृति से प्रेरणा प्राप्त करता रहा है। ... लोक जीवन में पग पग पर लोक संस्कृति के दर्शन होते हैं। लोक साहित्य उतना ही पुराना है जितना कि मानव, इसलिए उसमें जन जीवन की प्रत्येक अवस्था, प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक समय और प्रकृति सभी कुछ समाहित
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लोक का अभिप्राय सर्वसाधारण जनता से है, जिसकी व्यक्तिगत पहचान न होकर सामूहिक पहचान है। दीन-हीन, शोषित, दलित, जंगली जातियाँ, कोल, भील, गोंड (जनजाति), संथाल, नाग, किरात, हूण, शक, यवन, खस, पुक्कस आदि समस्त लोक समुदाय का मिलाजुला रूप लोक कहलाता है। इन सबकी मिलीजुली संस्कृति, लोक संस्कृति कहलाती है। देखने में इन सबका अलग-अलग रहन-सहन है, वेशभूषा, खान-पान, पहरावा-ओढ़ावा, चाल-व्यवहार, नृत्य, गीत, कला-कौशल, भाषा आदि सब अलग-अलग दिखाई देते हैं, परन्तु एक ऐसा सूत्र है जिसमें ये सब एक माला में पिरोई हुई मणियों की भाँति दिखाई देते हैं, यही लोक संस्कृति है। लोक संस्कृति कभी भी शिष्ट समाज की आश्रित नहीं रही है, उलटे शिष्ट समाज लोक संस्कृति से प्रेरणा प्राप्त करता रहा है।
लोक संस्कृति का एक रूप हमें भावाभिव्यक्तियों की शैली में भी मिलता है, जिसके द्वारा लोक-मानस की मांगलिक भावना से ओत प्रोत होना सिद्ध होता है। वह 'दीपक के बुझने' की कल्पना से सिहर उठता है। इसलिए वह 'दीपक बुझाने' की बात नहीं करता 'दीपक बढ़ाने' को कहता है। इसी प्रकार 'दूकान बन्द होने' की कल्पना से सहम जाता है। इसलिए 'दूकान बढ़ाने' को कहता है।[2] लोक जीवन की जैसी सरलतम, नैसर्गिक अनुभूतिमयी अभिव्यंजना का चित्रण लोक गीतों व लोक कथाओं में मिलता है, वैसा अन्यत्र सर्वथा दुर्लभ है। लोक साहित्य में लोक मानव का हृदय बोलता है। प्रकृति स्वयं गाती गुनगुनाती है। लोक जीवन में पग पग पर लोक संस्कृति के दर्शन होते हैं। लोक साहित्य उतना ही पुराना है जितना कि मानव, इसलिए उसमें जन जीवन की प्रत्येक अवस्था, प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक समय और प्रकृति सभी कुछ समाहित है।[3]
लोकसंस्कृति पर विभिन्न विद्वानों यथा डाॅ हजारी प्रसाद द्विवेदी, डाॅ सत्येन्द्र आदि ने भी लिखा है, जिसका सार यह है की लोकसंस्कृति वह संस्कृति है जो अनुभव, श्रुति और परम्परा से चलती है। इसके ज्ञान का आधार पोथी नहीं होती।
वर्तमान में लोकसंस्कृति विज्ञानी डाॅ भूपेन्द्र सिंह के अनुसार लोकसंस्कृति विज्ञान के माध्यम से केवल परम्पराओं को ही नहीं बल्कि भारत के विभिन्न जातियों के उद्भव का क्रम, उनके आपस में सम्बन्ध और कर्म से जन्म आधारित जाति व्यवस्था के सृजन को समझना बेहद आसान है।