लुट्टन पहलवान ने ऐसा क्यों कहा होगा कि मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है?
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मार्क अस ब्रैंलिएस्ट आंसर।
लुट्टन पहलवान का कोई गुरु नहीं था। उसने कुश्ती के जो भी दांव-पेंच सीखे थे, वह ढोल की आवाज सुनकर ही सीखे थे। जब भी वह ढोल की ध्वनि सुनता तो उसके अंदर स्वतः ही एक जोश भर जाता था और उसके अंग-अंग फड़कने लगते थे। उसे ऐसे लगता कि ऐसे ढोल से निकलने वाली आवाजें उसे कुश्ती के दांव-पेच सिखा रही हैं और उसे कुश्ती लड़ने के लिए आदेश दे रही हैं। ढोल की थाप से उसकी नसें उत्तेजित हो जाती और वह लड़ने के लिए तत्पर हो जाता। इस तरह लुट्टन पहलवान स्वतः ही ढोल की ध्वनि से कुश्ती के दांव-पेच सीखता चला गया, इसलिए पहलवान ने ऐसा कहा होगा कि मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है।
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