History, asked by Drisrarahmad, 7 months ago

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मुगलकाल में हिन्दी साहित्य का उल्लेख करो​

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Answered by sun2051
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उन्होंने दिलचस्प एवं महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं। अकबर का एक समकालीन व्यक्ति माधवाचार्य, जो त्रिवेणी का एक बगाली कवि तथा चडी-मंगल का लेखक था, बादशाह की विद्या के पोषक के रूप में बहुत प्रशंसा करता है।

अकबर के शासनकाल के फारसी साहित्य को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं-

ऐतिहासिक पुस्तके,

अनुवाद तथा

काव्य और पद्य।

उस शासनकाल की प्रमुख ऐतिहासिक पुस्तके हैं- मुल्ला दाऊद की तारीखे-अल्फी, अबुलफजल की आईने-अकबरी तथा अकबरनामा, बदायूनीं की मुख्तखाबुत्-तबारीख, निजामुद्दीन अहमद की तबकाते-अकबरी, फैजी-सरहिन्दी का अकबरनामा तथा अब्दुल वाकी की मआसिरे-रहीमी जो अब्दुर्रहीम खाने-खानान के संरक्षण में संकलित हुई। उस शासनकाल का (फारसी में) सबसे योग्य लेखक अबुल फजल था, जो विद्वान्, कवि, निबन्धकार, समालोचक तथा इतिहासकार था। बादशाह की आज्ञा से संस्कृत एवं अन्य भाषाओं की बहुत-सी पुस्तकों का फारसी में अनुवाद हुआ। बहुत-से मुसलमान विद्वानों ने महाभारत के विभिन्न भागों का फारसी में अनुवाद किया तथा उनका रज्मनामा के नाम से संकलन हुआ। चार वर्षों तक परिश्रम करने के बाद बदायूनी ने 1589 ई. में रामायण का अनुवाद पूरा किया। फारसी में हाजी इब्राहिम सरहिन्दी ने अथर्ववेद का, फैजी ने गणित की एक पुस्तक लीलावती का, मुकम्मल खाँ गुजराती ने जयोतिष

अकबर के द्वारा शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित हो गयी थी। साथ ही उस युग के धार्मिक आन्दोलनों के उदार विचारों का प्रचार सन्त उपदेशकों का एक समूह जनता की समझ में आ जाने वाली भाषा में कर रहा था। इन बातों से प्रोत्साहन पाकर जनता की प्रतिभा बहुमुखी होकर प्रस्फुटित हुई। फलस्वरूप सोलहवीं तथा सत्रहवीं सदियाँ हिन्दुस्थानी साहित्य का स्वर्णिम युग बन गयीं। 1526 ई. के बाद का प्रथम उल्लेखनीय लेखक मलिक मुहमद जायसी था। उसने 1540 ई. में पद्मावत नामक उत्तम दार्शनिक महाकाव्य लिखा, जिसमें मेवाड़ की रानी पद्मिनी की कहानी रूपक में बाँधकर दी गयी है। हिन्दी काव्य में अकबर की अत्याधिक दिलचस्पी थी तथा वह उसका पोषण करता था। इससे हिन्दी साहित्य को बहुत प्रोत्साहन मिला। बादशाह के दरबारियों में बीरबल, जिसे उसने कविप्रिय की उपाधि दी थी, एक प्रसिद्ध कवि था। राजा मानसिंह भी हिन्दी में पद्य लिखा करता था तथा विद्या का पोषक था। अकबर के मंत्रियों में सबसे प्रसिद्ध लेखक अब्दुर्रहीम खाने-खानान था, जिसके दोहे आज भी सम्पूर्ण उत्तर भारत में दिलचस्पी एवं प्रशंसा के साथ पढ़े जाते हैं। नरहरि, जिसे बादशाह ने महापात्र की उपाधि दी थी, हरीनाथ तथा गज भी उसके दरबार के उल्लेखनीय लेखक थे।

इस युग में काव्यकला को क्रमबद्ध करने के प्रथम प्रयास भी हुए। केशवदास (मृत्यु 1617 ई.) जहाँगीर के समय के एक सुविख्यात कवि थे। जहाँगीर का भाई दानियाल हिन्दी का अच्छा कवि था। सुन्दर कविराय, मतिराम, बिहारी और कवीन्द्र आचार्य शाहजहाँकालीन प्रसिद्ध कवि है। जिन्होंने रीतिकालीन हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि करने में सराहनीय योगदान दिया। शाहजहाँ के दरबार के अन्य प्रसिद्ध कवि हरीनाथ, शिरोमणि मिश्र और वेदांगराय थे।

बादशाहों के पुस्तक-प्रेम के कारण पुस्तकालय स्थापित हुए, जिनमें अनगिनत बहुमूल्य हस्तलिखित ग्रंथ भरे पड़े थे। अकबर के पुस्तकालय में विशाल संग्रह था तथा पुस्तकों का भिन्न-भिन्न विषयों के अनुसार उचित रूप से वर्गीकरण किया गया था।

सुन्दर लिखावट की कला उत्तमता की अच्छी अवस्था पर थी। अकबर के दरबार के प्रसिद्ध ग्रंथकर्ताओं में, जिनकी एक सूची आईने-अकबरी में है, सबसे प्रमुख कश्मीर का मुहम्मद हुसैन था, जिसे जरींकलम की उपाधि मिली थी।

औरंगजेब के शासनकाल में राजसंरक्षण हटा लेने के कारण हिन्दी साहित्य का विकास अवरुद्ध हो गया। इस युग में उत्तरी भारत में अधिक उर्दू कविता भी नहीं लिखी गयी। किन्तु दक्कन में उर्दू पद्य के कुछ प्रसिद्ध लेखक हुए।

हिन्दी के साथ ही उर्दू का भी मध्ययुग में विकास हुआ। रेखता के रूप में उर्दू कविता को सबसे पहले दक्षिण में मान्यता मिली। भारतीय मुसलमानों को फारसी के रूप में अपनी मातृभाषा बनाए रखना कठिन हो गया। फलत: 18वीं शती के प्रारम्भ में भारतीय मुसलमानों के घरों और दरबारों में हिन्दवी बोली जाने लगी। इसी प्रक्रिया में उर्दू का उद्भव और विकास हुआ। रेखता में लिखित सबसे प्राचीन पुस्तक मीरातुल आशकीन एक रहस्यात्मक गद्य ग्रन्थ है। ख्वाजा बन्दानवाज गेसूदराज इस ग्रन्थ के लेखक है। इस ग्रन्थ की लिपि पारसी है। वहमनी राज्य के विघटन के पश्चात् दक्षिण के मुस्लिम सुल्तानों ने विशेषकर बीजापुर और गोलकुण्डा के सुल्तानों ने उर्दू को संरक्षण दिया। उत्तर में सम्राट् मुहम्मदशाह के दरबार में लगभग 18वीं सदी के मध्य में मान्यता मिली। मुहम्मदशाह (1718-48 ई.) प्रथम मुगल शासक था जिसने कि दक्खिन के सुविख्यात कवि समसुद्दीन वली को दरबार में अपनी कविताएँ सुनाने को आमन्त्रित कर उर्दू को प्रोत्साहन दिया था। वली 1722 ई. में दिल्ली आ गए थे। उसके पूर्व भी वे दिल्ली आ चुके थे। दिल्ली आने पर उन्होंने दक्खिनी मुहावरों के स्थान पर दिल्ली के मुहावरों का प्रयोग किया। इससे उर्दू को नया आयाम मिला। 18वीं सदी में इस परम्परा का और विकास हुआ। हातिम अबू हातिम, नाजी मजम और मजहर दिल्ली के प्रथम उर्दू कवि थे। दूसरी पीढ़ी के उर्दू कवियों में मीर तर्की, मीर ख्वाजा, मीर दर्द सौ, सोज, शदी और इंशा ने उर्दू को और अधिक परिष्कृत किया। परवर्ती शताब्दी में उर्दू विकास के पथ पर और आगे बढ़ी। कालान्तर में उर्दू सरकारी काम-काज की भाषा के रूप में स्वीकार कर ली गई। इससे उसके विकास को और प्रोत्साहन मिला।

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