मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना इस विषय पर अनुच्छेद लिखें। Please answer my question as soon as possible
Answers
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
आज के सन्दर्भ में यह पंक्ति ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ अति प्रासांगिक हो जाता है. जहाँ एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के प्रति असहिष्णु होते जा रहे हैं. क्या उनके ऐसा करने से हमारे देश की गंगा – जमुनी तहजीब बच पायेगी. यह एक विचारनीय प्रश्न है? संसार में बहुत सारे धर्म हैं. सभी धर्म अपनी-अपनी मान्यताओ, आस्थाओं विश्वासों, सिधान्तों एवं जीवन-दर्शन पर आधारित हैं. इस प्रकार इन धर्मों में अनेकरूपता दृष्टिगोचर होती है, परन्तु यदि गहनता से देखा जाए तो सभी धर्मों के मूल में अदभुत साम्य पाया जाता है. कुछ बातों एवं सिधान्तों में ये अवश्य अलग हो सकते हैं, पर वे इनके बाह्य स्वरूप हैं. जैसे-कोई धर्म मूर्ति-पूजा का समर्थन करता है तो कोई विरोध, कोई पुनर्जन्म के सिधांत में आस्था रखता है तो अन्य नहीं, परन्तु संसार के सभी धर्म नैतिकता का ही दूसरा नाम हैं.
संसार के विभिन्न धर्म हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, बुराई से अच्छाई की ओर तथा पाप से पुण्य की ओर ले जाते हैं, फिर कोई भी धर्म वैर भाव को उत्पन्न करने वाला या बढ़ाने वाला कैसे हो सकता है. यदि कोई धर्म वैर, हिंसा, क्रूरता, घृणा, वैमनस्य अथवा शत्रुता की शिक्षा देता है, तो फिर उसे धर्म कहा ही नहीं जा सकता है. जिस प्रकार हम किसी स्थान पर पहुँचने के लिए कई मार्गों से होकर जा सकते हैं, उसी प्रकार जीवन में अच्छाई और पवित्रता लाने के लिए किसी भी धर्म का आश्रय ले सकते हैं. कहा भी गया है:
पथ का हो बंटवारा, मंजिल को तुम मत बांटो.
किरणों का हो बंटवारा, सूरज को तुम मत बांटो.
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि आजकल धर्म के नाम पर बैर, घृणा तथा हिंसा की घटनाएँ बढ़ रही हैं, पर इनके पीछे स्वार्थी एवं मदांध धर्माचार्यों का हाथ होता है. हमें याद रखना चाहिए कि धर्म व्यक्ति से जोड़ता है, तोड़ता नहीं. इसलिए इकबाल ने कहा था ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’. हमें अपने देश की हजारों साल पुरानी साझी संस्कृति को बचाकर रखना होगा. इसके लिये सबको मिलकर प्रयास करना होगा तभी हमारा देश और यह विश्व मनुष्यों के लिये एक बेहतर स्थान बना रहेगा.
Answer:
ये पंक्तियाँ हैं कवि अलामा इकबाल की, जो उर्दू के प्रसिद्ध शायर थे। उन्होंने ये पंक्तियाँ अपनी एक देश प्रेम की कविता में रची। उनके इन शब्दों से देश के जन जन में देशभक्ति का संचार हुआ और देशवासी साम्प्रदायिकता की भावना से ऊपर उठकर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। इन शब्दों में ऐसा जादू भरा था कि प्रत्येक मज़हब के लोग स्वयं को मात्र भारतीय मानते हुए भारतमाता की पराधीनता की बेडि़याँ काटने में संलग्न हो गए। कवि की इन पंक्तियों ने लोगों को मज़हब के वास्तविक अर्थ का ज्ञान कराया।
मज़हब एक पवित्र अवधारणा है। यह अत्यन्त सूक्ष्म, भावनात्मक सूझ, विश्वास और श्रद्धा है। मूलत अध्यात्म के क्षेत्र में ईश्वर, पैगम्बर आदि के प्रति मन की श्रद्धा या विश्वास पर आधारित धारणात्मक प्रक्रिया ही मज़हब है। यह बाहम आडम्बरों, वैर भाव, अन्धविश्वास आदि से ऊपर है। इसी बात को ही इकबाल जी ने कहा है। उनके द्वारा कथित सूक्ति का भी यही अभिप्राय है कि कोई भी धर्म परस्पर वैर रखने को प्रोत्साहित नहीं करता, अपितु परस्पर मेल मिलाप और भाईचारे का सन्देश देता है। मज़हब सिखाता है- लड़ाई झगड़े से दूर रहकर आत्म संस्कार के द्वारा प्राणियों का हित साधना करना। मज़हब स्पष्ट करता है कि भले ही ईश्वर के नाम पृथक हैं और रूप भिन्न हैं, फिर भी वह एक ही है। मज़हब के नाम पर लड़ना मूर्खता है। मज़हब की आड़ में लड़ने वाले अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए इसकी विभिन्न ढंगों से व्याख्या करते हैं।
अब यदि इतिहास पर नजर दौड़ाते हुए विचार करें तो स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठेगा कि क्या मज़हब की उपरोक्त व्याख्या उचित है? हम सभी जानते हैं कि इकबाल के उपरोक्त कथन के बावजूद भारत में मज़हब के नाम पर कत्लेआम हुआ, भारत के दो टुकड़े हुए। मुसलमान पाकिस्तान का व हिन्दू हिन्दूस्तान का गुणगान करने लगे। यहाँ तक कि स्वयं कवि भी ऐसे लोगों की श्रेणी में शामिल हो गया और अपने ही कथन को विस्मृत करके पाकिस्तान का गुणगान करने लगा। जब स्वयं वक्ता ही ही अपने कथन पर श्रद्धा न हो तो ये पंक्तियाँ कैसे श्रद्धेय हो सकती हैं? यही कारण है कि देश की स्वतन्त्रता के इतने वर्षों के बाद भी लोग इनको अपने मन में धारण नहीं कर पाए हैं। ऐसी स्थिति में मज़हब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है।
इतिहास से दृष्टि हटाकर यदि हम वर्तमान में मनन करें तो क्या आज भी मज़हब के नाम पर दंगे फसाद नहीं होते? सलमान रूष्दी द्वारा इंग्लैंड में बैठकर इस्लाम की पवित्र आयतों के खिलाफ एक कल्पित उपन्यास लिखने के कारण ही उसके लिए मौत का फरमान जारी कर दिया गया, लेकिन परित्यक्ता मुस्लिम नारी के हित को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्णस सुनाया गया तो धर्मावलम्बियों ने इसे मुस्लिम कानून में हस्तक्षेप माना। इससे भारतीय राजनीति में हलचल मच गई। अयोध्या में राम जन्मभूमि पर बाबरी मस्जिद होने से निरन्तर तनावपूर्ण स्थिति बनी रही। यहाँ तक कि मस्जिद को तोड़कर उस स्थान पर राम मन्दिर बनाने का प्रयास किया गया। आज भी बकरीद के अवसर पर मुसलमान गाय या बैल की हत्या करते हैं जबकि हिन्दू गाय को माँ तुल्य मानकर पूजा करते हैं। क्या अब भी कहा जा सकता है कि ‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना’।
इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें कवि की पंक्तियों का गहराई से अध्ययन करना होगा। यह बात सही है कि देश का विभाजन मज़हब के नाम पर हुआ था, किन्तु यह तथ्य भी किसी से छिपा हुआ नहीं है कि देश विभाजन की माँग करने वाले कुछ चंद लोग ही थे, जो पथभ्रष्ट होने के साथ साथ अंग्रेजी शासकों के हाथों की कठपुतलियाँ थे। मज़हब के वास्तविक अर्थ को समझने वाले भारतीय इस विभाजन के पक्ष में बिल्कुल नहीं थे। इतिहास साक्षी है कि धार्मिक अन्धविश्वास के कारण जब ईसा को सूली पर लटकाया गया, तो सलीब पर शरीर को लटकाने वालों, कीलें ठोकने वालों के लिए भी शुभकामनाएं करते हुए उन्होंने कहा था- प्रभो! उनको सुबुद्धि, सुख और शांति दे। ये लोग नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं या करने जा रहे हैं। इसी प्रकार गुरू तेगबहादुर, हकीकतराय, महात्मा गाँधी आदि कितने ही महापुरूषों ने अपने जीवन की कुर्बानी दे दी। किन्तु अंतिम साँस तक भूलकर भी दूसरे मज़हब के प्रति अपशब्द नहीं कहे। इसी कारण ही तो आज समस्त विश्व उन महापुरूषों को ससम्मान स्मरण करता है।
यदि हम किसी भी धर्म अथवा मज़हब की धार्मिक पुस्तक को उठाकर देखें तो उसमें अपने तरीरे से पूजा अर्चना करने के विषय में तो कहा गया है, किन्तु किसी से भी ईर्ष्या द्वेष करने की बात नहीं मिलती। यदि हम दूसरों के मज़हब का सम्मान करेंगे तो दूसरे भी हमें सम्मान के बदले सम्मान ही देंगे। सब धर्म सहिष्णुता, नम्रता, प्रेम, सहानुभूति, सत्य, सदाचार आदि की शिक्षा देते हैं। सभी धर्मों का सार एक ही है। धर्म इन्सानों को तोड़ने का नहीं अपितु जोड़ने का साधन है। धर्म आदमी को आदमीयता का विकास करने की प्ररेणा देता है। इसीलिए मज़हब के महत्व पर प्रकाश डालते हुए इकबाल ने कहा है-
हमने यह माना कि मज़हब जान है इन्सान की।
कुछ इसी के दम से कायम शान है इन्सान की।।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि ऊपर से देखने पर मज़हब जितना कलहकारक लगता है, अन्दर से उतना ही शांतिदायक है। अत हमें मज़हब के सच्चे अर्थ को समझते हुए सभी धर्मों का सम्मान करना चाहिए। अपने विश्वास व मान्यताओं पर कायम रहते हुए भी दूसरे धर्मों से घृणा नहीं करनी चाहिए। सर्वधर्म समन्वय, सर्वधर्म समभाव ही मज़हब का सार तत्व है। शेष सब मात्र आडम्बर है।