प्रेमचंद की कहानी में गांधीवादी आदर्श को समझाते हुए जुलूस कहानी की समीक्षा कीजिए
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बीसवीं सदी का वह भारत, जिसकी सोई हुई आस्था जागने के लिये अकुलाने लगी थी...उसमें एक नाम साहित्य की दुनिया से था तो दूसरा राजनीतिक हलचलों से, वे नाम थे...प्रेमचंद और महात्मा गांधी। देश के और सामाजिक कुरीतियों के प्रति दोनों महापुरुषों की चिंता समान थी। एक ने उसका प्रतिकार अपनी लेखनी से किया तो दूसरे ने सत्याग्रह से। यहां प्रारम्भ में ही यह बात विचारणीय है कि क्या प्रेमचंद गांधीजी से प्रभावित थे? निस्संदेह इसमें दो मत नहीं हैं कि प्रेमचंद पर गांधी जी का प्रभाव था पर यह भी निर्विवाद सत्य है कि गांधी की लड़ाई जिन-जिन समस्याओं के विरुद्ध रही, उस लड़ाई को प्रेमचंद पहले से ही लड़ रहे थे या यूं कहें कि हम प्रेमचंद के विचारों में, उनके साहित्य में गांधी के आगमन से ही गांधी दर्शन की छाया पाने लगते हैं। गांधी की क्रियात्मकता की झलक हमें प्रेमचंद के प्रारम्भिक साहित्य में ही मिलने लगती है...चाहे वह देश प्रेम की बात हो या सामाजिक समस्याओं की। इसका कारण स्पष्ट है, वह यह कि गांधी का भारत प्रेमचंद के लिये उनका अपना घर था जिसमें उनका बचपन अठखेलियों की यादों को संजोये हुये बड़ा हुआ था, जिसकी झलक हमें उनकी कहानी 'चोरी' में मिलती है, कुछ इस तरह—''हाय बचपन, तेरी याद नहीं भूलती। वह कच्चा, टूटा घर, वह पुआल का बिछौना, नंगे बदन, नंगे पांव खेतों में घूमना, आम के पेड़ों पर चढ़ना—सारी बातें आंखों के सामने फिर रही हैं...गरम पनुए रस में जो मजा था, वह अब गुलाब के शर्बत में भी नहीं, चबेने और कच्चे बेरों में जो रस था, वह अब अंगूर और खीरमोहन में भी नहीं मिलता।...''
उनके हृदय में समाई इसी प्रकार की भावात्मकता प्रेमचंद को उद्वेलित करती रही अपनी लेखनी में, जिसमें देश के लिये उनकी तड़प है और प्रेम भी है। इसीलिये वे अपने देश में पनपी तमाम बुराइयों के विरोध में अपनी लेखनी चलाते हैं जिसके स्वर हमें गांधी दर्शन में मिलते हैं।
भारतीय राजनीति में गांधीजी का आगमन 1916 के आस-पास हुआ पर प्रेमचंद के साहित्यिक जीवन का प्रारम्भ लगभग 1901 से ही हो चुका था। स्वाभाविक था कि ऐसे प्रेमचंद के लिये तत्कालीन परिस्थितियां अत्यंत प्रभावित कर देने वाली थीं जिनमें राष्ट्रीय चेतना और राजनीतिक संघर्ष का बिगुल बज चुका था। देश की उन परिस्थितियों ने प्रेमचंद की लेखनी को जैसे धार दे दी और वे चल पड़े उन्हीं रास्तों पर, जिन पर आगे गांधी जी को आना था। अमृतराय के इस कथन से इसका स्पष्ट प्रमाण मिलता है जिसमें वे लिखते हैं...''सन् 1901 के आसपास प्रेमचंद ने अपना पहला उपन्यास 'श्यामा' लिखा। मुझे बताया गया है कि उसमें प्रेमचंद ने बड़े सतेज, साहसपूर्ण स्वर में ब्रिटिश कुशासन की निंदा
की है।''
यही भावधारा उस काल की कहानियों में मिलती है। इन कहानियों का संग्रह, संभवत: 1906 में 'सोजेवतन' के नाम से छपा था। यह किताब फौरन जब्त कर ली गई।... देश की परिस्थितियां ही ऐसी थीं कि हर सच्चे भारतीय के सीने में देश प्रेम उफान मार रहा था। 'सोजेवतन' संग्रह की पहली कहानी 'दुनिया का सबसे अनमोल रतन' में उसी की परिणति दिखती है जिसमें उस प्रेमिका के द्वारा मंगाई गई रत्नजडि़त मंजूषा में से निकली तख्ती पर सुनहरे अक्षरों में लिखा है... 'खून का वह आखिरी कतरा जो वतन की हिफाजत में गिरे, दुनिया की सबसे अनमोल चीज है...।' इस संग्रह की पांचों कहानियों में देश प्रेम की ही महिमा है। 'यही मेरा वतन है' कहानी में अपने बच्चों के साथ अमेरिका में बस जाने वाले एक भारतीय के सीने में अपने देश के प्रति प्रेम का दर्द कुछ इसी तरह बोलता है।
जुलूस कहानी की समीक्षा
यह कहानी संबंधी माड्यूलर के दूसरे पाठ्यक्रम 'प्रेमचंद की कहानियाँ' का तीसरा भाग है।
पूर्ण स्वराज्य का जुलूस जोर शोर से निकला जा रहा था। कुछ युवा, कुछ वृद्ध, कुछ बच्चे झंडियाँ और झंडे थामे वंदेमातरम् गाते हुए माल के सामने से निकले। दोनों तरफ दर्शकों की कतार लगी थी, मानो यह कोई show है और उनका काम केवल खड़े-खड़े देखना मात्र है।
शंभूनाथ ने दूकान की पटरी पर जाकर पड़ोसी दीनदयाल से बोला की सब के सब काल के ग्रास में जा रहे हैं। आगे सवारों का दल उन्हें भगा देगा।
दीनदयाल ने बोला -महात्मा जी भी सठिया गये हैं। अगर जुलूस निकालने से स्वराज्य मिलता होता तो अब तक कब का मिल गया होता।
और जुलूस में हैं कौन लोग, देखो तो जरा -गुंडे, लफंगे, बदमाश। शहर का कोई बड़ा नमी आदमी नहीं।
शुरुआत में बीरबल सिंह अंग्रेजी हुकूमत के प्रति वफादार था शुरुआत में वह स्वार्थी था अहिंसा के जुलूस पर उसने लाठियां बरसाई यह उसकी बर्बरता दिखाती है लेकिन बाद में उसके हृदय परिवर्तन होने से वह एक देश प्रेमी बन गया उसने अपना पश्चाताप भी किया
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