Hindi, asked by dppanda6154, 10 months ago

प्रतापनारायण मिश्र का निबंध 'बात' और नागार्जुन की कविता 'बातें' ढूंढ कर पढ़े।

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Answered by luckysharma92259
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Answer:

Yes I had read this essay but I forgotten

Answered by shishir303
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प्रताप नारायण मिश्र का निबंध ‘बात’ और नागार्जुन की कविता ‘बातें’ यहाँ पर प्रस्तुत है, विद्यार्थी इसको पढ़ सकते हैं।

प्रतापनारायण मिश्र का निबंध ‘बात’

यदि हम वैद्य होते तो कफ और पित्त के सहवर्ती बात की व्‍याख्‍या करते तथा भूगोलवेत्ता होते तो किसी देश के जल बात का वर्णन करते। किंतु इन दोनों विषयों में हमें एक बात कहने का भी प्रयोजन नहीं है। इससे केवल उसी बात के ऊपर दो चार बात लिखते हैं जो हमारे सम्‍भाषण के समय मुख से निकल-निकल के परस्‍पर हृदयस्‍थ भाव प्रकाशित करती रहती है। सच पूछिए तो इस बात की भी क्या बात है जिसके प्रभाव से मानव जाति समस्‍त जीवधारियों की शिरोमणि (अशरफुल मखलूकात) कहलाती है। शुकसारिकादि पक्षी केवल थोड़ी सी समझने योग्‍य बातें उच्‍चरित कर सकते हैं इसी से अन्‍य नभचारियों की अपेक्षा आद्रित समझे जाते हैं। फिर कौन न मान लेगा कि बात की बड़ी बात है। हाँ, बात की बात इतनी बड़ी है कि परमात्‍मा को सब लोग निराकार कहते हैं तौ भी इसका संबंध उसके साथ लगाए रहते हैं। वेद ईश्‍वर का बचन है, कुरआनशरीफ कलामुल्‍लाह है, होली बाइबिल वर्ड आफ गाड है यह बचन, कलाम और वर्ड बात ही के पर्याय हैं सो प्रत्‍यक्ष में मुख के बिना स्थिति नहीं कर सकती। पर बात की महिमा के अनुरोध से सभी धर्मावलंबियों ने "बिन बानी वक्‍त बड़ योगी" वाली बात मान रक्‍खी है। यदि कोई न माने तो लाखों बातें बना के मनाने पर कटिबद्ध रहते हैं।

यहाँ तक कि प्रेम सिद्धांती लोग निरवयव नाम से मुँह बिचकावैंगे। 'अपाणिपादो जवनो गृहीता' इत्‍यादि पर हठ करने वाले को यह कहके बात में उड़ावेंगे कि "हम लँगड़े लूले ईश्‍वर को नहीं मान सकते। हमारा प्‍यारा तो कोटि काम सुंदर श्‍याम बरण विशिष्‍ट है।" निराकार शब्‍द का अर्थ श्री शालिग्राम शिला है जो उसकी स्‍यामता को द्योतन करती है अथवा योगाभ्‍यास का आरंभ करने वाले कों आँखें मूँदने पर जो कुछ पहिले दिखाई देता है वह निराकार अर्थात् बिलकुल काला रंग है। सिद्धांत यह कि रंग रूप रहित को सब रंग रंजित एवं अनेक रूप सहित ठहरावेंगे किंतु कानों अथवा प्रानों वा दोनों को प्रेम रस से सिंचित करने वाली उसकी मधुर मनोहर बातों के मजे से अपने को बंचित न रहने देंगे।

जब परमेश्‍वर तक बात का प्रभाव पहुँचा हुआ है तो हमारी कौन बात रही? हम लोगों के तो "गात माहिं बात करामात है।" नाना शास्‍त्र, पुराण, इतिहास, काव्‍य, कोश इत्‍यादि सब बात ही के फैलाव हैं जिनके मध्‍य एक-एक ऐसी पाई जाती है जो मन, बुद्धि, चित्त को अपूर्व दशा में ले जाने वाली अथच लोक परलोक में सब बात बनाने वाली है। यद्यपि बात का कोई रूप नहीं बतला सकता कि कैसी है पर बुद्धि दौड़ाइए तो ईश्‍वर की भाँति इसके भी अगणित ही रूप पाइएगा।

बड़ी बात, छोटी बात, सीधी बात, टेढ़ी बात, खरी बात, खोटी बात, मीठी बात, कड़वी बात, भली बात, बुरी बात, सुहाती बात, लगती बात इत्‍यादि सब बात ही तो है? बात के काम भी इसी भाँति अनेक देखने में आते हैं। प्रीति बैर, सुख दु:ख श्रद्धा घृणा, उत्‍साह अनुत्‍साहादि जितनी उत्तमता और सहजतया बात के द्वारा विदित हो सकते हैं दूसरी रीति से वैसी सुविधा ही नहीं। घर बैठे लाखों कोस का समाचार मुख और लेखनी से निर्गत बात ही बतला सकती है। डाकखाने अथवा तारघर के सारे से बात की बात में चाहे जहाँ की जो बात हो जान सकते हैं। इसके अतिरिक्‍त बात बनती है, बात बिगड़ती है, बात आ पड़ती है, बात जाती रहती है, बात उखड़ती है।

आज और बात है कल ही स्‍वार्थांधता के बंश हुजूरों की मरजी के मुवाफिक दूसरी बातें हो जाने में तनिक भी विलंब की संभावना नहीं है। यद्यपि कभी-कभी अवसर पड़ने पर बात के अंश का कुछ रंग ढंग परिवर्तित कर लेना नीति विरुद्ध नहीं है, पर कब? जात्‍योपकार, देशोद्धार, प्रेम प्रचार आदि के समय, न कि पापी पेट के लिए। एक हम लोग हैं जिन्‍हें आर्यकुलरत्‍नों के अनुगमन की सामर्थ्य नहीं है। किंतु हिंदुस्‍तानियों के नाम पर कलंक लगाने वालों के भी सहमार्गी बनने में घिन लगती है।

इससे यह रीति अंगीकार कर रखी है कि चाहे कोई बड़ा बतकहा अर्थात् बातूनी कहै चाहै यह समझे कि बात कहने का भी शउर नहीं है किंतु अपनी मति अनुसार ऐसी बातें बनाते रहना चाहिए जिनमें कोई न कोई, किसी न किसी के वास्‍तविक हित की बात निकलती रहे। पर खेद है कि हमारी बातें सुनने वाले उँगलियों ही पर गिनने भर को हैं। इससे "बात बात में वात" निकालने का उत्‍साह नहीं होता। अपने जी को 'क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने' इत्‍यादि विदग्‍धालापों की लेखनी से निकली हुई बातें सुना के कुछ फुसला लेते हैं और बिन बात की बात को बात का बतंगड़ समझ के बहुत बात बढ़ाने से हाथ समेट लेना ही समझते हैं कि अच्‍छी बात है।

नागार्जुन की कविता ‘बातें’

बातें–

हँसी में धुली हुईं

सौजन्य चंदन में बसी हुई

बातें–

चितवन में घुली हुईं

व्यंग्य-बंधन में कसी हुईं

बातें–

उसाँस में झुलसीं

रोष की आँच में तली हुईं

बातें–

चुहल में हुलसीं

नेह–साँचे में ढली हुईं

बातें–

विष की फुहार–सी

बातें–

अमृत की धार–सी

बातें–

मौत की काली डोर–सी

बातें–

जीवन की दूधिया हिलोर–सी

बातें–

अचूक वरदान–सी

बातें–

घृणित नाबदान–सी

बातें–

फलप्रसू, सुशोभन, फल–सी

बातें–

अमंगल विष–गर्भ शूल–सी

बातें–

क्य करूँ मैं इनका?

मान लूँ कैसे इन्हें तिनका?

बातें–

यही अपनी पूंजी¸ यही अपने औज़ार

यही अपने साधन¸ यही अपने हथियार

बातें–

साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा

बना लूँ वाहन इन्हें घुटन का, घिन का?

क्या करूँ मैं इनका?

बातें–

साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा

स्तुति करूँ रात की, जिक्र न करूँ दिन का?

क्या करूँ मैं इनका?

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