Hindi, asked by manishasumra3, 5 months ago

पूस की रात मुंशी प्रेमचंद कहानी का वर्णन​

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Answered by guptakomal689
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“न जाने कितना रुपया बाकी है जो किसी तरह अदा ही नहीं होता। मैं कहती हूं, तुम खेती क्यों नहीं छोड़ देते। मर-मर कर काम करो। पैदावार हो तो उससे कर्जा अदा करो। कर्जा अदा करने के लिए तो हम पैदा ही हुए हैं। ऐसी खेती से बाज आए” मुन्नी ने यह बात अपने पति हल्कू से तब कही थी, जब वह तगादे के लिए आए सहना को पैसे देने के लिए पत्नी से तीन रुपए मांग रहा था। मुन्नी को उन पैसों से कंबल खरीदने थे ताकि “पूस की रात” में ठंड से बचा जा सके। पत्नी से तीखी बहस के बाद आखिर हल्कू सहना को पैसे दे देता है। नतीजतन, कंबल के अभाव में ठिठुरते हुए रात काटनी पड़ती है।

हल्कू अपने खेत को नीलगायों से बचाने के लिए रातभर पहरेदारी करता है लेकिन पूस की उस रात खेतों को नहीं बचा पाता। अगले दिन सुबह मुन्नी खेत पर पहुंची तो उसके चेहरे पर उदासी थी लेकिन हल्कू खुश था। मुन्नी ने चिंतित होकर कहा, “अब मजूरी करके मालगुजारी करनी पड़ेगी।” हल्कू का उत्तर था, “रात को ठंड में यहां सोना तो न पड़ेगा।”

मुंशी प्रेमचंद ने “पूस की रात” कहानी करीब 100 साल पहले (1921) लिखी थी। उस दौर में कृषि और किसानों की स्थिति को जानने समझने के लिए यह एक दुर्लभ कहानी है। मुंशी प्रेमचंद के रचनाकाल और मौजूदा दौर में किसानों की स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो एक बात तो स्पष्ट हो जाएगी कि किसानों के लिए स्थितियां आजादी के बाद बहुत बेहतर नहीं हुई हैं। मौजूदा वक्त में तो कृषि संकट चरम पर पहुंच गया है।

पूस की रात में किसानों की दो समस्याएं मुख्य रूप से उभरकर सामने आती हैं- कर्ज में डूबा किसान और खेती का लाभकारी न होना। हल्कू की तरह देश का किसान आज भी कर्ज में डूबा है और आज भी खेती लाभकारी नहीं है। जिस तरह हल्कू नीलगाय से फसल को बचाने के लिए रात में पहरेदारी करता था, उसी तरह आज भी किसान आवारा पशुओं से खेतों को बचाने के लिए रात भर जाग रहे हैं।

राजनीतिक जमीन की खाद

देश में अभी चुनावों का माहौल है। हर नेता किसान, वंचित और भूमिहीनों की बात कर रहा है। वहीं दूसरी तरफ 1995 से लेकर 2016 के बीच देशभर में तीन लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) न जाने किन कारणों से किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा जारी नहीं कर रहा है। एनसीआरबी के पुराने आंकड़े बताते हैं कि किसानों के प्रतिरोध मार्च 2014 में 628 से बढ़कर 2016 में 4,837 हो गए। विभिन्न संस्थाएं किसानों की समस्याओं पर विचार करने के लिए विशेष संसद सत्र बुलाने की मांग कर रही हैं। चुनाव के अवसर पर सभी दल किसानों की आय बढ़ाने के लिए तरह-तरह के वादे कर रहे हैं। बजट में किसान सम्मान निधि का प्रावधान, कांग्रेस के घोषणापत्र में न्याय योजना एवं अलग से बजट की बात है। भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र में छोटे किसानों को पेंशन की बात है। क्षेत्रीय दल भी किसानों से जुड़ी योजनाओं पर अमल कर रहे हैं जैसे, उड़ीसा सरकार की कालिया योजना, फसल के सही दाम देने पर केंद्रित तेलंगाना की रायतू बंधु योजना, मध्य प्रदेश की भावांतर भुगतान योजना आदि।

ये योजनाएं अपनी जगह हैं, मगर छोटे किसानों की असली मुश्किलों पर ध्यान नहीं दिया गया है। देश का 40 प्रतिशत भूभाग सूखे से ग्रस्त है। किसान एक तरफ सूखे की मार और दूसरी तरफ उपज का वाजिब मूल्य न मिलने से परेशान हैं। केवल उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों का 12,549.61 करोड़ रुपए बकाया है। किसानों से जुड़ी योजनाओं में नौकरशाही का रोड़ा, महिलाओं को किसान न मानना, उन्हें जमीन का मालिकाना हक न मिलना और घोषणापत्रों में कामचलाऊ समाधान भर देना आज की सचाई है।

इस परिदृश्य में चुनाव से पहले हुए शोध और समय-समय पर गांव की दिखावटी यात्राएं हल नहीं हैं। किसानों की समस्याओं को हल करने के लिए एक निश्चित तरीका अपनाने की जरूरत है। इसमें जनभागीदारी (एथिनोग्राफी) के जरिए किसानों की समस्याओं पर पुनर्विचार और साहित्य के द्वारा उन्हें समझने की कोशिश करनी चाहिए। स्थानीय लोगों की मदद भी काम आ सकती है।

इन्हें पढ़कर कल, आज और कल के किसानों के मुद्दों को आसानी से समझा जा सकता है। विमल राय की फिल्म और सलिल चौधरी द्वारा लिखित “दो बीघा जमीन” (1953) ऐसे लोकप्रिय सांस्कृतिक औजार हैं, जिनसे ग्रामीण क्षेत्रों में फैली असहायता और निराशा को समझा जा सकता है। आज के नीति निर्माताओं को इनसे किसानों की मुश्किलों को समझने में मदद मिल सकती है। इसी तरह प्रेमचंद की कहानी “पूस की रात” किसान की स्थिति का प्रामाणिक दस्तावेज है। इसमें उसकी ऋण ग्रस्तता, मौसम की मार, कर्ज चुकाने की असमर्थता, किसान का परिवेश व पशुधन के साथ रिश्ता, कृषि से हताशा और ऊब, महिलाओं का ग्रामीण अर्थव्यवस्था को चलाने में केंद्रीय योगदान समझा जा सकता है। यह कहानी समस्या को संपूर्णता से साथ बताती है।

मुंशी प्रेमचंद की एक अन्य कहानी “सवा सेर गेहूं” (1921) जमींदार और सवर्ण के वर्चस्व को दिखाती है। कहानी के केंद्र में शंकर नाम का एक भोलाभाला किसान है जिसे दुनियादारी की होशियारी नहीं आती। वह अपने शोषण के जाल में बुरी तरह उलझ जाता है। कहानी पूरी मार्मिकता के साथ बताती है कि गरीब का पैसा किस तरह अमीर की तरफ जाता है। शंकर और उसका परिवार खुद जौ की रोटी खाते हैं, लेकिन जब उनके घर में एक साधु आता है तो शंकर उसके लिए विप्र जी महाराज से सवा सेर गेहूं उधार लाता है।

इस कहानी से पता चलता है कि किसानों के लिए बनाई जाने वाली समकालीन कर्ज माफी की नीतियां, कुछ समय के लिए तो राहत दे सकती हैं, लेकिन इसके लिए बैंकिंग सुविधाएं और सही ऋण देने की व्यवस्थाओं के बारे में सोचना चाहिए। साथ ही कृषि के ढांचे में सुधार लाना चाहिए और कागजी औपचारिकताओं को आसान बनाना चाहिए। एक तरफ हमारे योजनाकार अशोक दलवई कमेटी (किसानों की 2022 तक आय दोगुनी करना) की रिपोर्ट को लागू करने की बात करते हैं, दूसरी तरफ किसानों के रोजमर्रा के मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया जाता।

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