पाठ-शब्दार्थ एवं सरलार्थ |
(ग्रीष्मर्ती सायंकाले विद्युदभावे प्रचण्डोष्मणा पीडितः वैभवः गृहात् निष्क्रामति)
वैभवः – अरे परमिन्दर्! अपि त्वमपि विद्युदभावेन पीडितः बहिरागत:?
परमिन्दर् – आम् मित्र! एकत: प्रचण्डातपकाल: अन्यतश्च विद्युदभावः परं बहिरागत्यापि पश्यामि यत् वायुवेगः तु सर्वथाऽवरुद्धः। सत्यमेवोक्तम् ।
प्राणिति पवनेन जगत् सकलं, सृष्टिर्निखिला चैतन्यमयी।
क्षणमपि न जीव्यतेऽनेन विना, सर्वातिशायिमूल्यः पवनः॥
विनयः – अरे मित्र! शरीरात् न केवलं स्वेदबिन्दवः अपितु स्वेदधारा: इव प्रस्रवन्ति स्मृतिपथमायाति शुक्लमहोदयैः रचितः श्लोकः।
तप्तैर्वाताघतैरवितुं लोकान् नभसि मेघाः,
आरक्षिविभागजना इव समये नैव दृश्यनते॥
सरलार्थ : (ग्रीष्म ऋतु में शाम को बिजली के न रहने पर भयानक गर्मी से दु:खी वैभव घर से निकलता है।)
वैभव – अरे परमिन्दर्! क्या तुम भी बिजली के अभाव (न रहने) से परेशान बाहर आए हो?
परमिन्दर् – हाँ मित्र! एक ओर से भयानक गर्मी का समय है और दूसरी ओर बिजली की कमी है परन्तु बाहर आकर देखता हूँ कि हवा की गति भी पूरी तरह से रुकी हुई है। सच ही कहा गया है-
सारा संसार हवा से ही साँस ले रहा है, सारी दुनिया (हवा से ही) चेतना युक्त है। इसके बिना क्षण भर भी जिया नहीं जाता है, हवा सबसे अधिक मूल्यवान (महँगी) है|
विनय – अरे मित्र! शरीर से न केवल पसीने की बूंदें बल्कि मानो पसीने की धारें बहती हैं। माननीय शुक्ल जी के द्वारा लिखा गया यह श्लोक याद आ रहा है।
तपते हुए वायु के प्रहार से परेशान लोगों को आकाश में बादल, पुलिस विभाग के लोगों की तरह (उचित) समय पर नहीं दिखाई देते हैं।
शब्दार्थ : ग्रीष्मतौ-गर्मी के मौसम में। विद्युदभावे-बिजली के न होने पर। प्रचण्ड-उष्मणा-तेज गर्मी से। निष्क्रामति-निकलता है। पीडितः-परेशान। एकतः-एक ओर। प्रचण्डातपकाल:-तेज गर्मी का समय। अन्यतः-दूसरी ओर। वायुवेगः-हवा का झोंका। सर्वथा-पूरी तरह से। अवरुद्धः-रुक गया है। प्राणिति-प्राण (साँस) लेता है। निखिला-सारी। चैतन्यमयी-चेतना से युक्त। जीव्यते-जिया जाता है। सर्वातिशायिमूल्यः-सबसे अधिक मूल्यवान। स्वेदबिन्दवः-पसीने की बूंदें। स्वेदधाराः-पसीने की धराएँ। प्रस्रवन्ति-बहती हैं। आयाति-आता है। तप्तैः-तपे हुए। वाताघातैः-हवा के झोंको से। नभसि-आकाश में। आरक्षिविभागजनाः-पुलिस विभाग के लोग। समये-समय पर। दृश्यन्ते-दिखाई देते हैं।
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ఛగఠఠఠడఠఠ ఈ పద్యం రాఘవ పేట శ్రీనివాసులు రెడ్డి డా..
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