Pariksha ke kathor din essay
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परीक्षा कैसी भी हो और किसी की भी हो, परीक्षा परीक्षा होती है । यह परीक्षा के दिन अन्य दिन के मुकाबले किस तरह भारी पड़ते हैं, यह वही अच्छी तरह समझ सकता है, जो परीक्षा के दौर से गुजर रहा होता है । हर आदमी को जिंदगी में कई बार परीक्षा के कठिन दौरों से गुजरना ही पड़ता है। अब इन कठिन घड़ियों से कोई आदमी चाहे रो-धोकर पार पा ले या हँसी-ख़ुशी गले लगाकर, यह सब सबकी अपनी-अपनी प्रकृति और क्षमता पर निर्भर करता है।
जिंदगी में आने वाली परीक्षाओं के दौर से गुजरते हुए जब बात छोटे बच्चों के परीक्षा के दिनों पर आकर अटकती हैं तो यह मेरे हिसाब से किसी भी माँ-बाप के लिए बच्चों की परीक्षा से ज्यादा उनकी परीक्षा के दिन होते हैं, जब बच्चों को पढ़ाने-रटाने की माथापच्ची में उलझे कच्चा-पक्का खाकर दिन का चैन और रातों की नींद उड़ाने का समय आन पड़ता है। आजकल ऐसे ही परीक्षा के कठिन दिन शुरू हो चुके हैं। एक तो बच्चों की परीक्षा शुरू हुई नहीं कि सर्दी-जुकाम के साथ बुखार ने उन्हें आ घेरा, जिससे नई मुसीबत गले पड़ गई। अक्सर ऐसे कई मौकों पर यह सब देख-देखकर अब मन ने हैरान-परेशान होना प्राय: छोड़ सा दिया है, फिर भी माँ का दिल कहाँ मानता है। बच्चों की स्कूली गाडी बिना ब्रेक लगे फुल स्पीड से आगे बढ़े यही सोचकर ऑफिस से छुट्टी लेकर कमर कसकर लगी हुई हूँ। पढ़ाते-रटाते समझ में आ रहा है कि क्यों बचपन में कभी परीक्षा के दिनों में अच्छे खासे शांत घर में भूचाल आ जाता था।
बच्चे जब बड़े होकर समझदार हो जाते हैं तो उनमें परीक्षा की समझ विकसित हो जाती है, तब माँ-बाप को उनके खाने-पीने और समय पर आराम करने का ध्यान खुद रखना पड़ता है, वर्ना वे रात भर चाय-कॉफ़ी-बिस्कुट बना-खाकर खटपिट-खटपिट कर सबकी नींद उडाये रखते हैं। इसके उलट छोटे-छोटे बच्चों को पढाना-रटाना बहुत टेढ़ी खीर है, जो किसी कठिन अबूझ पहेली से कमतर नहीं आंकी जा सकती है। अधिकांश शरारती बच्चों की तरह मेरे दोनों बच्चे भी कम शरारती नहीं, खेलने, टीवी पर कार्टून देखते समय तो थोडा बहुत लड़ेंगे-भिड़ेंगे लेकिन पढने के नाम पर एक साथ क्या बिठा लिया तो आंख हटी नहीं कि उनकी खुसुर-फुसुर के साथ लाता-लूती या बैठे-बैठे ऊँघने-सोने का उत्क्रम शुरू हो जाएगा और फिर चल पड़ेगा एक-दूसरे की शिकायत का सिलसिला - "मैं नहीं, वह तो यह .... मैं तो वह .." माजरा समझकर जरा चिल्ला-पों मचाई नहीं कि बात-बात पर उनके पित्त गरम हो जाने लगते हैं। ऐसे हालातों में फिर तो गर्दन पकड़कर पढवाना मजबूरी बन जाती है, पेच हाथ में रखकर पत्थर की नाव चलाने की कोशिश करनी ही पड़ती है।
सिर से परीक्षा के इन दिनों का बोझ जल्दी से उतर जाय इसका बच्चों के साथ मुझे तो बेसब्री से इंतजार है ही साथ ही छोटे कार्तिकेय को भी कम इंतज़ार नहीं करना पड़ रहा है। यह इंतज़ार उसकी मासूम आँखों में साफ़ झलकता है। वह नानी की गोद में गुमसुम टुकुर-टुकुर अपनी पढ़ाई-लिखाई में व्यस्त दीदी-भैया की इस बेरुखी का सबब समझने की पूरी कोशिश में लगा रहता है। वह समझ नहीं पा रहा है कि आखिर आजकल स्कूल से आते ही टी-वी. पर कार्टून और खेलना-खिलाना छोड़-छोड़कर दोनों कौन से जंग जीतने की तैयारी में जुते हुए हैं। उस मासूम को अभी कुछ खबर नहीं लेकिन दीदी-भैया को इसकी जरुर खबर है कि जब स्कूल में पेपर के बण्डल से उनका पेपर बाहर निकलकर खुली हवा में साँस लेता है तो किस तरह उनकी जान सांसत में डालकर सिट्टी-पिट्टी गोल कर देता है
जिंदगी में आने वाली परीक्षाओं के दौर से गुजरते हुए जब बात छोटे बच्चों के परीक्षा के दिनों पर आकर अटकती हैं तो यह मेरे हिसाब से किसी भी माँ-बाप के लिए बच्चों की परीक्षा से ज्यादा उनकी परीक्षा के दिन होते हैं, जब बच्चों को पढ़ाने-रटाने की माथापच्ची में उलझे कच्चा-पक्का खाकर दिन का चैन और रातों की नींद उड़ाने का समय आन पड़ता है। आजकल ऐसे ही परीक्षा के कठिन दिन शुरू हो चुके हैं। एक तो बच्चों की परीक्षा शुरू हुई नहीं कि सर्दी-जुकाम के साथ बुखार ने उन्हें आ घेरा, जिससे नई मुसीबत गले पड़ गई। अक्सर ऐसे कई मौकों पर यह सब देख-देखकर अब मन ने हैरान-परेशान होना प्राय: छोड़ सा दिया है, फिर भी माँ का दिल कहाँ मानता है। बच्चों की स्कूली गाडी बिना ब्रेक लगे फुल स्पीड से आगे बढ़े यही सोचकर ऑफिस से छुट्टी लेकर कमर कसकर लगी हुई हूँ। पढ़ाते-रटाते समझ में आ रहा है कि क्यों बचपन में कभी परीक्षा के दिनों में अच्छे खासे शांत घर में भूचाल आ जाता था।
बच्चे जब बड़े होकर समझदार हो जाते हैं तो उनमें परीक्षा की समझ विकसित हो जाती है, तब माँ-बाप को उनके खाने-पीने और समय पर आराम करने का ध्यान खुद रखना पड़ता है, वर्ना वे रात भर चाय-कॉफ़ी-बिस्कुट बना-खाकर खटपिट-खटपिट कर सबकी नींद उडाये रखते हैं। इसके उलट छोटे-छोटे बच्चों को पढाना-रटाना बहुत टेढ़ी खीर है, जो किसी कठिन अबूझ पहेली से कमतर नहीं आंकी जा सकती है। अधिकांश शरारती बच्चों की तरह मेरे दोनों बच्चे भी कम शरारती नहीं, खेलने, टीवी पर कार्टून देखते समय तो थोडा बहुत लड़ेंगे-भिड़ेंगे लेकिन पढने के नाम पर एक साथ क्या बिठा लिया तो आंख हटी नहीं कि उनकी खुसुर-फुसुर के साथ लाता-लूती या बैठे-बैठे ऊँघने-सोने का उत्क्रम शुरू हो जाएगा और फिर चल पड़ेगा एक-दूसरे की शिकायत का सिलसिला - "मैं नहीं, वह तो यह .... मैं तो वह .." माजरा समझकर जरा चिल्ला-पों मचाई नहीं कि बात-बात पर उनके पित्त गरम हो जाने लगते हैं। ऐसे हालातों में फिर तो गर्दन पकड़कर पढवाना मजबूरी बन जाती है, पेच हाथ में रखकर पत्थर की नाव चलाने की कोशिश करनी ही पड़ती है।
सिर से परीक्षा के इन दिनों का बोझ जल्दी से उतर जाय इसका बच्चों के साथ मुझे तो बेसब्री से इंतजार है ही साथ ही छोटे कार्तिकेय को भी कम इंतज़ार नहीं करना पड़ रहा है। यह इंतज़ार उसकी मासूम आँखों में साफ़ झलकता है। वह नानी की गोद में गुमसुम टुकुर-टुकुर अपनी पढ़ाई-लिखाई में व्यस्त दीदी-भैया की इस बेरुखी का सबब समझने की पूरी कोशिश में लगा रहता है। वह समझ नहीं पा रहा है कि आखिर आजकल स्कूल से आते ही टी-वी. पर कार्टून और खेलना-खिलाना छोड़-छोड़कर दोनों कौन से जंग जीतने की तैयारी में जुते हुए हैं। उस मासूम को अभी कुछ खबर नहीं लेकिन दीदी-भैया को इसकी जरुर खबर है कि जब स्कूल में पेपर के बण्डल से उनका पेपर बाहर निकलकर खुली हवा में साँस लेता है तो किस तरह उनकी जान सांसत में डालकर सिट्टी-पिट्टी गोल कर देता है
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