Hindi, asked by astha40, 1 year ago

poem on women security

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Answered by Dhananjay9839343805
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१. जब नारी में शक्ति सारी 
फिर क्यों नारी हो बेचारी 

२. नारी का जो करे अपमान 
जान उसे नर पशु समान 

३.हर आंगन की शोभा नारी 
उससे ही बसे दुनिया प्यारी 

४.राजाओं की भी जो माता 
क्यों हीन उसे समझा जाता 

५.अबला नहीं नारी है सबला 
करती रहती जो सबका भला 

६.नारी को जो शक्ति मानो 
सुख मिले बात सच्ची जानो 

७.क्यों नारी पर ही सब बंधन 
वह मानवी , नहीं व्यक्तिगत धन 

८.सुता बहु कभी माँ बनकर 
सबके ही सुख-दुख को सहकर 
अपने सब फर्ज़ निभाती है 
तभी तो नारी कहलाती है 

९.आंचल में ममता लिए हुए 
नैनों से आंसु पिए हुए 
सौंप दे जो पूरा जीवन 
फिर क्यों आहत हो उसका मन 

१०.नारी ही शक्ति है नर की 
नारी ही है शोभा घर की 
जो उसे उचित सम्मान मिले 
घर में खुशियों के फूल खिलें 

११.नारी सीता नारी काली 
नारी ही प्रेम करने वाली 
नारी कोमल नारी कठोर 
नारी बिन नर का कहां छोर 

१२.नर सम अधिकारिणी है नारी 
वो भी जीने की अधिकारी 
कुछ उसके भी अपने सपने 
क्यों रौंदें उन्हें उसके अपने 

१३.क्यों त्याग करे नारी केवल 
क्यों नर दिखलाए झूठा बल 
नारी जो जिद्द पर आ जाए 
अबला से चण्डी बन जाए 
उस पर न करो कोई अत्याचार 
तो सुखी रहेगा घर-परिवार 

१४.जिसने बस त्याग ही त्याग किए 
जो बस दूसरों के लिए जिए 
फिर क्यों उसको धिक्कार दो 
उसे जीने का अधिकार दो 

१५.नारी दिवस बस एक दिवस 
क्यों नारी के नाम मनाना है 
हर दिन हर पल नारी उत्तम 
मानो , यह न्या ज़माना है 


मैं नारी

मैं नारी सदियों से 
स्व अस्तित्व की खोज में 
फिरती हूँ मारी-मारी 
कोई न मुझको माने जन 
सब ने समझा व्यक्तिगत धन 
जनक के घर में कन्या धन 
दान दे मुझको किया अर्पण 
जब जन्मी मुझको समझा कर्ज़ 
दानी बन अपना निभाया फर्ज़ 
साथ में कुछ उपहार दिए 
अपने सब कर्ज़ उतार दिए 
सौंप दिया किसी को जीवन 
कन्या से बन गई पत्नी धन 
समझा जहां पैरों की दासी 
अवांछित ज्यों कोई खाना बासी 
जब चाहा मुझको अपनाया 
मन न माना तो ठुकराया 
मेरी चाहत को भुला दिया 
कांटों की सेज़ पे सुला दिया 
मार दी मेरी हर चाहत 
हर क्षण ही होती रही आहत 
माँ बनकर जब मैनें जाना 
थोडा तो खुद को पहिचाना 
फिर भी बन गई मैं मातृ धन 
नहीं रहा कोई खुद का जीवन 
चलती रही पर पथ अनजाना 
बस गुमनामी में खो जाना 
कभी आई थी सीता बनकर 
पछताई मृगेच्छा कर कर 
लांघी क्या इक सीमा मैने 
हर युग में मिले मुझको ताने 
राधा बनकर मैं ही रोई 
भटकी वन वन खोई खोई 
कभी पांचाली बनकर रोई 
पतियों ने मर्यादा खोई 
दांव पे मुझको लगा दिया 
अपना छोटापन दिखा दिया 
मैं रोती रही चिल्लाती रही 
पतिव्रता स्वयं को बताती रही 
भरी सभा में बैठे पांच पति 
की गई मेरी ऐसी दुर्गति 
नहीं किसी का पुरुषत्व जागा 
बस मुझ पर ही कलंक लागा 
फिर बन आई झांसी रानी 
नारी से बन गई मर्दानी 
अब गीत मेरे सब गाते हैं 
किस्से लिख-लिख के सुनाते हैं 
मैने तो उठा लिया बीडा 
पर नहीं दिखी मेरी पीडा 
न देखा मैनें स्व यौवन 
विधवापन में खोया बचपन 
न माँ बनी मै माँ बनकर 
सोई कांटों की सेज़ जाकर 
हर युग ने मुझको तरसाया 
भावना ने मुझे मेरी बहकाया 
कभी कटु कभी मैं बेचारी 
हर युग में मै भटकी नारी 
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मेरा प्रणाम है पहली नारी सीता को जिसने एक सीमा (लक्ष्मण रेखा ) को तोडकर 
भले ही जीवन भर अथाह दुख सहे लेकिन आधुनिक नारी को आजादी का मार्ग दिखा दिया 

धन्य हो तुम माँ सीता 
तुमने नारी का मन जीता 
बढाया था तुमने पहला कदम 
जीवन भर मिला तुम्हें बस गम 
पर नई राह तो दिखला दी 
नारी को आज़ादी सिखला दी 
तोडा था तुमने इक बंधन 
और बदल दिया नारी जीवन 
तुमने ही नव-पथ दिखलाया 
नारी का परिचय करवाया 
तुमने ही दिया नारी को नाम 
हे माँ तुझे मेरा प्रणाम..
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