Push ki raat ki katha wastu
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कथा सम्राट प्रेमचंद ने हिन्दी के खजाने में कई अनमोल रत्न जोड़े हैं. महज आठ साल की उम्र में प्रेमचंद की मां का स्वर्गवास होने और पिता द्वारा दूसरी शादी करने के चलते उनके बाल मन को वह स्नेह कभी न मिल सका जिसकी उसे चाह होती है. प्रेमचंद ने गरीबी को बेहद करीब से देखा. कहा जाता है कि उनके पास कई बार पहनने के लिए कपड़े तक नहीं होते थे... लेकिन प्रेमचंद ने अपने लेखन को ही अपना साथी बनाया और उसे ही ओढ़ा और पहना...
प्रेमचंद का लेखन और उनकी रचानाएं जितनी प्रासंगिक उस समय में थीं, जब वह रची गईं, उतनी ही आज भी हैं. प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियों में किसानों, मजदूरों और सामाजिक भेदभाव का मार्मिक चित्रण हैं. 8 अक्तूबर 1936 को प्रेमचंद ने सदा के लिए आंखें मूंद ली थीं. पेश है उनकी कालजयी रचनाओं में से एक 'पूस की रात' -
पूस की रात
हल्कू ने आकर स्त्री से कहा- सहना आया है, लाओ, जो रुपये रखे हैं, उसे दे दूं, किसी तरह गला तो छूटे.
मुन्नी झाड़ू लगा रही थी. पीछे फिरकर बोली- तीन ही तो रुपये हैं, दे दोगे तो कम्मल कहां से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी? उससे कह दो, फसल पर दे देंगे. अभी नहीं.
हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा. पूस सिर पर आ गया, कम्मल के बिना हार में रात को वह किसी तरह नहीं जा सकता. मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियां जमावेगा, गालियां देगा. बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी. यह सोचता हुआ वह अपना भारी- भरकम डील लिए हुए (जो उसके नाम को झूठ सिद्ध करता था) स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला- ला दे दे, गला तो छूटे. कम्मल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूंगा.
मुन्नी उसके पास से दूर हट गयी और आंखें तरेरती हुई बोली- कर चुके दूसरा उपाय! जरा सुनूं तो कौन-सा उपाय करोगे? कोई खैरात दे देगा कम्मल? न जाने कितनी बाकी है, जों किसी तरह चुकने ही नहीं आती. मैं कहती हूं, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई. बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है. पेट के लिए मजूरी करो. ऐसी खेती से बाज आये. मैं रुपये न दूंगी, न दूंगी.
हल्कू उदास होकर बोला- तो क्या गाली खाऊं?
मुन्नी ने तड़पकर कहा- गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है?
मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौहें ढीली पड़ गयीं. हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भांति उसे घूर रहा था.
उसने जाकर आले पर से रुपये निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिये. फिर बोली- तुम छोड़ दो अबकी से खेती. मजूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी. किसी की धौंस तो न रहेगी. अच्छी खेती है! मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर धौंस.
हल्कू ने रुपये लिये और इस तरह बाहर चला मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा हो. उसने मजूरी से एक-एक पैसा काट-कपटकर तीन रुपये कम्मल के लिए जमा किये थे. वह आज निकले जा रहे थे. एक-एक पग के साथ उसका मस्तक अपनी दीनता के भार से दबा जा रहा था.
II
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पूस की अँधेरी रात। आकाश पर तारे ठिठुरते हुए मालूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पत्तों की छतरी के नीचे बाँस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा काँप रहा था। खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट में मुँह डाले सर्दी से कूँ-कूँ कर रहा था|
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