राज्ञा महिष्मता निर्मिता का?
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श्रीमंत शंकरदेव पर निबन्ध | Essay on Nobel Sankar Dev in Hindi!
1. भूमिका:
जब भारत में हुमायूँ और शेरसाहका शासनकाल चल रहा था, उस समय देश के विभिन्न भागों में हिन्दू और सूफी धर्म के अलग-अलग सम्प्रदायों का जन्म हो रहा था । सूरदास, कबीरदास, तुलसीदास, गुरु नानक, चैतन्य, रामानन्द आदि महापुरुष अपने धार्मिक विचारों का प्रचार करने की कोशिश कर रहे थे । उसी काल में असम की पवित्र भूमि पर अवतार लिया था श्रीमंत शंकरदेव ने ।
2. जन्म और शिक्षा:
श्रीमंत शंकरदेव का जन्म सन् 1449 ई. में नगाँव जिले के आलिपुखुरी गाँव में हुआ था । उनके पिता का नाम था कुसुम्बर शिरोमणि भूइयाँ और माता का नाम सत्यसंध्या था । भगवान शिव के वरदान से पुत्र प्राप्त होने के कारण उनका नाम माता-पिता ने शंकर रखा । जन्म के कुछ समय पश्चात् माता-पिता का देहांत हो जाने के कारण उनका पालन-पोषण दादी खेरसुती ने किया ।
बालक शंकर बचपन से ही बड़ी तेज बुद्धि के थे । उनको गुरू महेन्द्र कन्दत्नि की पाठशाला में प्रवेश दिलाया गया, जहाँ उन्होंने कुछ ही वर्षों में व्याकरण रामायण महाभारत पुराण वेद ज्योतिष आदि विद्याओं का अध्ययन पूरा कर लिया । इसके बाद उनका विवाह सूर्यवती नामक कन्या से हुआ ।
3. कार्यकलाप:
32 वर्ष की आयु में आप देशाटन (Tour) के लिए निकल पडे और गंगाघाट, गया, श्रीक्षेत्र, वृन्दावन, गोकुल, मथुरा, सीताकुंड, बद्रिकाश्रम आदि स्थानों का भ्रमण किया । 12 वर्षों के देशाटन में उनकी भेंट देश के अन्य बड़े महापुरुषों से हुई ।
दूसरी बार उन्होंने दक्षिण भारत के संतों से भेंट की और धर्म के सच्चे स्वरूप का अध्ययन किया ।असम लौटकर उन्होंने एकशरण नाम धर्म की स्थापना की । इसे केवलीया या महापुरुषीया धर्म भी कहते हैं । उन्होंने मूइर्तपूजा के बदले भगवान के नाम को अधिक महत्व दिया ।
इसलिए नामघरों में मूर्तिपूजा नहीं होती । उन्होंने भाओना अर्थात् पौराणिक नाटकों के अभिनय तथा नृत्य-संगीत के द्वारा धर्म प्रचार किया और अनेक पुस्तकों की रचना कीं । सन् 1568 ई. में भीषण ज्वर के कारण उनका देहान्त हो गया ।
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