ज़रुरत - भर जीरा वहाँ से ले लिया कि फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहीं के बराबर हो जाता है - भगत जी की इस संतुष्ट निस्पृहता की कबीर की इस सूक्ति से तुलना कीजिए -
चाह गई चिंता गई मनुआँ बेपरवाह
जाके कछु न चाहिए सोइ सहंसाह।
कबीर
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चाह गई चिंता गई मनुआँ बेपरवाह
जाके कछु न चाहिए सोइ सहंसाह।
कबीर जी हमें इस दोहे में बताना चाहते है कि जिस मनुष्य की चाह और लालसा के समाप्त हो जाती है तब वह व्यक्ति सभी प्रकार की चिंता भी मुक्त हो जाता है| असली शंहशाह वही है जिसे कुछ भी नहीं चाहिए| जो अपने जीवन संतुष्ट होता| जो उसके पास वह उसी में खुश रहता है|
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मन रे तन कागद का पुतला।
लागै बूँद बिनसि जाइ छिन में, गरब कर क्या इतना।
इसका अर्थ
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